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________________ ३. प्रमाद-मद, विषय कषाय,निद्रा और विकथा में प्रवृत्त होना ४. कपाय-क्रोध, मान, माया एवं लोभ में प्रवृत्ति करना ५. योग-मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति । ६. प्राणातिपात-प्राणियों की हिंसा करना । ७. मृपावाद-असत्य वचन बोलना । ८. अदत्तादान-चोरी करना । ९. मैथुन-अब्रह्मचर्य सेवन करना । १०. परिग्रह-किसी भी पदार्थ में ममत्व एवं मूर्छा भाव रखना ११. श्रोत्रेन्द्रिय को अशुभ कार्य में लगाना । १२. चक्षुरिन्द्रिय को अशुभ कार्य में लगाना । १३. घ्राणेन्द्रिय को अशुभ कार्य में लगाना । १४. रसेन्द्रिय को अशुभ कार्य में लगाना । १५. स्पर्शेन्द्रिय को अशुभ कार्य में लगाना । १६. मन को अशुभ कार्य में प्रवृत्त करना । १७. वचन योग से अशुभ कार्य में प्रवृत्त होना । १८. काया योग से अशुभ कार्य में प्रवृत्त होना । १९. वस्त्र, पात्र आदि उपकरण विना यत्ना से ग्रहण करना या रखना। २०. शुचि कुसगा-सूई (शुचि) एवं तिनका मात्र भी अयतना से लेना या रखना। संवरतत्त्वः-संवर के दो भेद-(१) द्रव्य संवर (२)भाव संवर संबर के ५ भेद :-(१)समकित प्राप्ति करे तो संवर (२)व्रत
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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