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________________ (१६०) सिखाते हैं कि माधु का विनय करने से निर्जरा होती है । स्वामी वात्सल्य आदि करने से समकित शुद्ध होता है, ऐसे आज्ञा ही है, फिर साधु पूज, परटे विवेक करे, हिले चले तो धर्म को ग्रहण कर हिले चले । यत्ना से पूजे परटे आदि क्रियाओं में पाप है क्या ? यदि नहीं तो पाप गृहस्थ को ही लगता है क्या ? और सावु को छोड़ देता है क्या ? पाप डरता है ? तथा मिश्र भाषा की अपेक्षा कोई गमा कहते हैं कि मिश्र भापा तो एकान्त पाप ही है उसको भगवान ने आराधक विराधक कैसे कहा ? तथा कोई शिकारी को मृग बतावे, उसके पूछने पर शीघ्रता से मिलने के लिये दो घड़ी की एक बड़ी बतावे । किमी दया के कारण ऐसा कहा कि उस मग को गये तो एक प्रहर समय बीत गया है, ऐसा उस शिकारी को कहे । किसी ने माधु को घृत देते आधा सेर को सेर कहा किसी ने पाव सेर कहा तो उन दोनों को एकांत पाप होवे यह कैसे ? उत्तर यहां दोनों जगह भिन्न दृष्टि होने से परिणाम में अन्तर पडता है । फिर कोई मिश्र भाषा, किसी के लिए आराधक किसी के लिए विगधक यह कैसे ? उन्हें ऐसा कहें कि गंमा तो हम भी कहते हैं । ज्ञेय पदार्थ कोई तिरता है कोई हता है तो क्या दोनों होते हैं ? यहां कोई कहे कि ये तो बोलने की अपेक्षा सत्य व झूठ कहा है पर बोलने से एक ही होवे, पर दो नहीं । जो दूसरे को ठगने के लिए
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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