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________________ (१८६) मान्यता का पोषण करते हो, आज्ञा के दो भेद हैं, १-आदेश आज्ञा तथा २-उपदेश आज्ञा, इनमें से आदेश आज्ञा तो साधु को दी है और गृहस्थ को प्रवृत्ति भाव में ज्ञेय पदार्थ के विषय में किसी स्थान पर आज्ञा नहीं दी है तथा उपदेश आज्ञा तो ज्ञेय पदार्थ में जितना जितना धर्म है उतनी उतनी सबकी आज्ञा भगवान ने दी है। श्री दशवकालिक सूत्र के चौथे अध्याय की ११वीं गाथा में कहा है कि "सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा- जाणइ पावगं । उभयपि जाणइ सोण्चा, जसेयं तं समायरे ॥१॥" श्रेय कल्याण की बात देखकर उसमें जो अच्छी लगे वही उपयोग में लें । इमलिये श्रेय वस्तु की भगवान आज्ञा नहीं देवे, परन्तु वास्तव में आज्ञा है ही। फिर श्री पन्नवणा सत्र के ग्याहरचे पद में कहा है कि "आराहणी सच्चा, विराहणी मोसा. आराहणी विराहणी सच्चा मोसा" जो इन तीनों में नहीं वह व्यवहार । यहां मिश्र भाषा को आराधक विराधक दोनों कही है । इसमें जितना झूठ है जननी भगवान की आज्ञा नहीं, तथा जितना सत्य है उतनी भगवान की आज्ञा है । इस न्याय से ज्ञेय पदार्थ में जितना-धर्म है, उतनी आज्ञा ही है, इसलिये भाज्ञा बिना नही । धर्म तो आज्ञा में ही है, पर उपदेश आज्ञा तथा आदेश आज्ञा दोनों अलग २ हैं । यहां कोई समुच्चय साधु
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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