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________________ (१७१) काल की स्थिति, ४ - भाव से अनन्त वर्णादि सहित, ५- गुण से ग्रहण । १-- पुण्य द्रव्य से एक प्रकृत, २ - क्षेत्र से असंख्य प्रदेश अवगाही, ३ - काल से कम से कम एक समय. अधिक से अधिक बीस क्रोड़ा क्रोड़ी सागर, ४ - भाव १ - पाप 1 से रूपी शुभ वर्णादि सहित ५ – गुण मीठा । " द्रव्य से एक प्रकृत, २ - क्षेत्र से असंख्य प्रदेश अवगाही, ३ -- काल से कम से कम अन्तर्मुहूर्त, अधिक से अधिक सिचर कोड़ा क्रोड़ सागर, ४ - भाव से अशुभ वर्णादि सहित, ५ - गुण कटु ( कड़वा ) १ - आश्रव द्रव्य से एक प्रकृत, २ - क्षेत्र के असंख्य प्रदेशी, ३ - काल से सिचर कोड़ा क्रोड़ सागर, ४ - भाव से शुभाशुभ वर्णादि, ५-गुण कर्म ग्रहण करने का । १- संवर - द्रव्य से एक प्रकृत, २ - क्षेत्र से असंख्य प्रदेश ३ - काल से कम से कम एक समय अधिक से अधिक अनादि अनन्त, ४ - भाव से अरूपी, ५ - गुण कर्म रोकने का । १ - निर्जरा द्रव्य से एक प्रकृत, २ -- क्षेत्र से असंख्य प्रदेश ३ - काल से कम से कम, एक समय अधिक से अधिक अनादि तथा एक प्रकृति की अपेक्षा सात हजार वर्ष कम सिचर कोड़ा क्रोड़ सागर, ४ - भाव से अरूपी, ५ - गुण कर्म तोड़ने का । १-बंध द्रव्य से एक प्रकृत, २ - क्षेत्र से असंख्य प्रदेश से नये बंध की अपेक्षा सित्तर क्रोड़ा क्रोड़ सागर, ३ - काल ४ -- भाव T 1
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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