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________________ (१७०) १-पुण्य द्रव्य से अनन्तों को जीवन दाता है इस कारण अनन्त तथा अनन्त प्रदेशी है, २-क्षेत्र से सर्व लोक में है, ३-काल से नित्य, ४-भाव से शुभ वर्णादि सोलह बोल सहित, ५-गुण सुख दाता । पाप और आश्रव भी ऐसे ही हैं। १-संवर द्रव्य से सम्यकदृष्टि की अपेक्षा असंख्यात, सिद्धों की अपेक्षा तथा सर्व जीवों की अपेक्षा अनन्त, २-क्षेत्र से सर्व लोक में, ३-काल से नित्य, ४-भाव से अरूपी, ५--गुण कर्म रोकने का, ऐसे ही निर्जरा द्रव्य अनंत, शेष वैसे ही। बंध पुण्य के समान । मोक्ष निर्जरा के समान । ये सब द्रव्य की अपेक्षा बताये हैं। एक द्रव्य की अपेक्षा कहते हैं । १- जीव द्रव्य से एक, २-क्षेत्र से असंख्य प्रदेश अवगाहन वाला, उत्कृष्ठ सर्व लोक अवगाहन वाला, ३-काल से नित्य, ४-भाव से अरूपी, ५-गुण चेतना ऐसे ही अजीव के चार द्रव्य पूर्व के समान कहना। एक पुद्गल की अपेक्षा · द्रव्य से एक, २--क्षेत्र से जघन्य (कम से कम) एक प्रदेशावगाय उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सर्व लोक व्यापी, ३- काल से कम से कम एक समय अधिक से अधिक असंख्यात
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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