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________________ (१६४) बंध प्रकृति है। उसमें एक मी अड़चास प्रकृति है, पर यजीव के कोई प्रकृति नहीं । ३ पुण्य प्रकृति है. अप्रकृति नहीं । भाव पुण्य, भाव प्रकृति है, द्रव्य पुण्य द्रव्य प्रकृति है, पुण्य की बयालीस प्रकृति है । ४ ऐसे ही पाप प्रकृति है, अप्रकृति नहीं, पाप की बय्यामी प्रकृति है । ५ आश्रव प्रकृति है, अप्रकृति नहीं, आश्रव की सतावन प्रकृति हैपांच मिथ्यात्व, बारह अवत, पच्चीय कपाय, पन्द्रह योग ये सब ५७ प्रकृतियां हुई । ६ संवर अप्रकृति है, प्रकृति नहीं परन्तु सचावन प्रकृति का संवर किया है । ७ निर्जरा अप्रकृति है प्रकृति नहीं, परन्तु एक मी बावीस प्रकृति की निर्जरा करते होती है । ८ बंध प्रकृति है, अप्रकृति नहीं, एक सौ बीस प्रकृति को बांधता है । ९ मोक्ष अप्रकृति है, प्रकृति नहीं, परन्त एक सा अड़चालीस प्रकृति से छुटता है। ॥ इति प्रकृति अप्रकृति द्वार समाप्तम् ।। १८. ॐ भाव द्वार* जीव द्रव्य तो परिणामिक भाव में है, जीव के गुण पर्याय-१ उदय, २ उपशम, ३ क्षायक, ४ क्षयोपशम और ५ पारिणामिक भाव में है। यहां अशुद्ध गुण वेढ. कपाय, लेश्या, मिथ्यात्व आदि ये उदय भाव में हैं । शुद्ध गुण उपशम आदि तीन भाव में है। यहां उपशम समकिन
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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