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________________ (१०३) फिर दया पर राग आने से पाप कैसे हो सकता है । इस पर विचार करो तथा सराग संयम धर्म है या पाप ? यदि पाप है तो संसार के भय से उद्विग्न वने उसमें भी पाप है, संयम तथा श्रावकपन में अनुरक्त है, सूत्र में स्थान स्थान पर 'अडिभिज्जा पेमाणु राग रत्ता' कहा है अतः अनुराग में भी पाप होगा ? परन्तु किसी भी सूत्र में अनुकंपा में पाप नहीं फरमाया है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र के वाइसवें अध्याय में नेमिनाथ भगवान ने पशु छुड़ाये वहां कोई कहे कि भगवान ने तो अपना पाप मिटाया अतः ऐसा कहने वाले से कहना चाहिए कि सूत्र में 'साणुफ्कोसे जीए हेऊ' अर्थात् . अनुकंपावंत बताये हैं जीवों का हित चिंतन करते हैं ऐसा कहा है पर अपना हित चिंतन करते हैं ऐसा क्यों नहीं कहा है ? फिर कोई कहे कि-जीव तो मारने से मरता नहीं है यह तो हड़ियों का रखवाला है अपने अपने कर्मों से पचते हैं, जीव का उद्धार करने में कौन समर्थ है ? उसका उत्तरयदि जीव मारने से नहीं मरता और कोई उद्धार करने में समर्थ नहीं, अपने अपने कर्मों से पचते हैं तो फिर जीव मारने का पाप भी नहीं यदि मारने से पाप है तो उद्धार करने से धर्म भी है । यदि उद्धार करने से धर्म नहीं है तो मारने से पाप भी नहीं फिर यह बताओ कि जीव मारते
SR No.010317
Book TitleJain Tattva Shodhak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTikamdasmuni, Madansinh Kummat
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Swadhyayi Sangh Gulabpura
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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