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________________ समयसार गाथा ८३ में तो यह कहा गया है कि "एक-दूसरे के निमित्त से दोनों का परिणाम जानो।" सो समयसार का कथन असद्भूत व्यवहारनय का विषय होने से उपचार से ही जानना चाहिये । इसका अर्थ यह है कि कालप्रत्यासत्तिवश एक दूसरे के कार्य के सूचक होने से उनमें परस्पर निमित्त व्यवहार किया गया है । परमार्थ से उनमें निमित्तत्ता नहीं है । यही स्थिति समयसार गाथा ६१ की है। उसमें यही तो कहा गया है कि जब जीव अज्ञान आदि रूप स्वयं परिणमता है, तव पुद्गलं द्रव्य भी स्वयं कर्मरूप परिणमता है । इससे कर्म जीव के परिणमन होने में सहायता करता है या जीव पुद्गल के कर्मरूप परिणमन होने में सहायता करता है यह यथार्थ रूप में कहां सिद्ध होता है? दोनों ही अपने-अपने परिणाम एक काल में स्वयं करते हैं, उस वचन से मात्र इतना ही तो सिद्ध होता है। रही १०५ संख्याक गाथा सो उसमें यह साफ कहा गया है कि आत्मा स्वभाव से पौद्गलिक कर्म के होने में निमित्त नहीं है, उपचार से ही उसे निमित्त कहा गया है। सो इससे तो यही सिद्ध होता है कि आत्मा पौद्गलिंक कर्म के होने में निमित्त है यह कथनमात्र है, वस्तुस्थित नहीं है। कथन ११ का समाधान:-समयसार गाथा ३२ को ध्यान में रखकर हमने जो आशय व्यक्त किया था वह ठीक है। मिथ्यात्व विभाव परिणति है । जब तक आत्मा उसमें एकत्ववुद्धि करता है, तभीतक वह 'ज्ञानभाव से प्रात्मा का निर्णय करने में असमर्थ रहता है। पर जव मिथ्यात्व अवुद्धिपूर्वक वर्तता है और आत्मा अपने उपयोग के द्वारा ज्ञान-रूप भाव आत्मा को ही स्वरूप से स्वीकार कर वैसी भावना करता है, उसी समय से उसके मिथ्यात्वकर्म उदय की और मिथ्यात्वभाव दोनों ही नाम शेप होने लगते हैं। मिथ्यात्वकर्म उदय की अपेक्षा नामगेप होने लगता है, तभी तो अपूर्वकरण में ही मिथ्यात्व कर्म स्थिति अनुभागकाण्डक के घातपूर्वक गुणश्रेणि निर्जरा द्वारा हानि होने लगती है। तथा उपयोग के स्वभाव सन्मुख होकर ज्ञायक स्वभावरूप प्रात्मा की भावना करने से मिथ्यात्व पर्याय भी धीरे-धीरे कृश होने लगती है। यही आशय इस गाथा और उसकी टीका में प्रगट किया गया है। यह ठीक है कि मिथ्यात्वरूप विभाव पर्याय अभी जीवित है, वह अंतिम सासें भर रहा है और मोह कर्मोदय भी नामशेप नहीं हुआ है । दोनों की समव्याप्ति है, फिर भी आत्मा ने मिथ्यात्व परिणाम के फलस्वरूप परमें होने वाली एकत्वबुद्धि से भिन्न आत्मस्वभाव में एकत्वबुद्धि का कार्य प्रारम्भ कर दिया है । अतः उसके फलस्वरूप अन्तर्महूर्त में ही वह तत्वपूर्वक स्वभावरूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है और जिस समय वह इसे प्राप्त करता है, उसी समय मिथ्यात्व के उदय का अभाव रहता.ही है। अतः ये दोनों कार्य एक साथ होते हैं, इसीलिये वे एकदूसरे के कार्य सूचक होने से इनमें असद्भूत व्यवहारनय से निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार किया जाता है। परमार्थ से कोई किसी को निमित्तकर नहीं होता है, स्वयं होता है ऐसा यहां जानना चाहिए । यहाँ (स० पृ०४७ में). समीक्षक ने टिप्पणी में जो उद्धरण दिये हैं, वे हमारे इसी कथन की पुष्टि करते हैं ।शेप कथन का उत्तर देना पिष्ठपेपण है। - फथन १२ का समाधान:-समीक्षक हमारे स्पष्टीकरण पर ध्यान न देकर समयसार गाथा १९८ और १९६ के आधार पर जो प्रेरक कारण का समर्थन कर रहा है, सो उससे ऐसा लगता है कि वह अपनी कल्पित मान्यता की पुष्टि में इन गाथाओं पर से यह अर्थ निकालना चाहता है कि आगम
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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