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________________ से लिखा है और क्रोधादि विकारी भावों को स्वयं स्वतंत्र होकर जीव उत्पन्न करता है, प्रोधादि कर्म नहीं, यह निश्चय नय से लिखा है। (२) वहीं हमने जो यह लिखा है कि जिस-जिस समय जीव क्रोधादिभाव रूप से परिणामता है, उस-उस समय शोधादि द्रव्यकर्म के उदय को कानप्रत्याराप्ति होती है. इसलिये व्यवहारनय से क्रोधादि कर्म के उदय को निमित्त कर क्रोधादिभाव हुए यह कहा जाता है तो यह व्यवहारनय से ही लिखा है। यहां व्यवहारनय रो प्रसदभूत व्यवहारनय लिया गया है। इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर, इन दोनों वक्ताच्यों में कोई विरोध नहीं है। समीक्षक यह कहता तो अवश्य है कि प्रोधादि गापाय को उदय को निमित्ल गर जीव के विकारी भाव होते हैं, पर उनके होने में बाल निमित्त को भूनाधरूप में सहायक भी मान लेता है। एक ओर उसे असद्भूत व्यवहार में बाध निमित्त गहना पोर इमरी पोर से भूतायं से सहायक भी मान लेना, यह अवश्य ही चिन्ता का विषय है। यह यह समझ ही नहीं पाता कि बाहा निमित्त कार्यकाल में ही होता है, आगे-पीछे नहीं होता। फिर वह गाय की उत्पत्ति में भूतार्यरूप से सहायका कैसे हो सकेगा? अर्थात् कभी नही हो सकेगा। दूसरी विडम्बना की यात यह है कि ग्रागम में प्रयोजन विशेष से लिये गये बननों को देखकर उसने (समीक्षक ने) प्रेरक नाग का अलग से एक दूसरा निमित्त और मान लिया है और उसके आधार पर उसने कायं आगे-पीछे होना भी स्वीकार कर लिया है। साय ही इसके समर्थन में वह "उपादान अनेक योग्यतायाला होता है" यह भी स्वीकार कर लिया है। जबकि प्रागम में अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्य को कार्यरूप में स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है, सलिये हमें तो यह लगता है कि समीक्षक को पागम फो स्वीकार करने से कोई प्रयोजन नहीं है. उसे तो अपने मन की पुष्टि करने का ही ख्याल है, आगम का नहीं। अनेक कथनों पर की गई आपत्ति का समन्वयरूप एक उत्तर:-(स.पृ.४२ से ४६) समीक्षक ने एक से लेकर दस तक के हमारे कथनों पो पालम्बन बनापार समीक्षा के नाम पर जो कुछ भी लिखा है, उसका एक मात्र उत्तर यही है कि बाह्य निमिता प्रायोगिक या यंत्रमिक किसी प्रकार का ही क्यों न हो, वह पागम में कार्य के प्रति असद्गुन-व्यवहारनय से ही स्वीकार किया गया है, परमार्थ से नहीं । इसका अर्थ यह है कि वह न तो दूसरे के कार्य में भूतार्यरूप से सहायक ही होता है और न भूतार्थरूप से निमित्त ही होता है। केवल उसे कालप्रत्यासत्तियश उपचार से निमित्त के रूप में स्वीकार किया गया है। समीक्षक व्यथं ही बाब निमित्त में भूतायं रूप से सहायकपने का ढिंढोरा पीटने का असफल प्रयत्न करता है, यह उगका प्रागम विरुद्ध ही साहस कहा जायेगा। जैसा कि समीक्षा की मान्यता है कि "वाह निमित्त की सहायता के बिना उपादान अपना कार्य करने में असमर्थ ही रहता है । यदि उसकी इस मान्यता को पागम मान लिया जावे तो मोक्ष की चर्चा करना ही व्यर्थ ठहर जावेगा। जव कि वस्तुस्थिति यह है कि कर्मोदय रहे, किन्तु जीव उसमें उपयुक्त न हो अर्थात् उसके निमित्तभूत वाह्य पदार्थों में इप्टानिष्ट वुद्धि न करे तो यह जीव उम के फल का भोक्ता नहीं होताः इसलिये वाह्य पदार्थों का सम्पर्क करना ही गुण-दोप का जनक है, वाद्य वस्तु नहीं, यह गिनागम का सार है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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