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________________ * रूप क्रिया के करने में श्रकिञ्चित्कर ही है । ऐसी अवस्था में अन्य द्रव्य की परिणमनरूप क्रिया के करने में सहायता करता है, यह कहना भूतार्थ कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । समीक्षक ने स० पृ० ६ में हमसे यह भी पूछा है कि "वह यहाँपर उग्र रूप सर्वथा किंचित्कर ही बना रहता है और संसारी ग्रात्मा द्रव्यकर्मोदय के निमित्त हुए बिना अपने थाप ही विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमरणरूप परिणमन करता रहता है ।" सो इसके उत्तर में जब शास्त्रकार ही चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि प्रत्येकं द्रव्य अपनेअपने परिणाम स्वभाव के कारण प्रत्येक समय में विद्यमान परिणाम का व्यय कर अगले परिणामरूप अपने श्राप ही परिणमता है, उसमें कोई अन्य द्रव्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता; किन्तु समीक्षक इस प्रसंग से आगम में श्राये हुए "स्वयमेव" पद का अर्थ "अपने शाप" मानने के लिए तैयार न होने के कारण, दूसरे शब्दों में "सहायता" के नाम पर ही यह निमित्त को अन्य द्रव्य की क्रिया का पर मार्थ कर्ता मान लेता है । श्रन्यथा वह निमित्त के दो भेद करके प्रेरक निमित्त के नाम पर कार्य का आगे-पीछे होने की वकालात त्रिकाल में नहीं करता । (२) अन्य द्रव्य के कार्य में तद्भिन्न ग्रन्य द्रव्य की निमित्तता को ही यदि समीक्षक कार्यकारीपने की संज्ञा देता है तो ग्रसद्भूत व्यवहारनय से हमें ऐसा मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है । परमार्थ से देखा जाये तो कोई किसी कार्य का निमित्त होता ही नहीं । प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपने कार्य का निमित्त है और स्वयं ही अपने कार्य का कर्ता है । ' स० पृ० ३५ में समीक्षक रेलगाड़ी की गति में पटरी की सहायता होने से कार्यकारी मानता है । सो यहाँ देखना यह है कि पटरी रेलगाड़ी की गति में प्रसद्भूत व्यवहारनय से निमित्त अर्थात् सहायक है या परमार्थ से निमित्त है । यदि कहा जाय प्रसद्भूत व्यवहारनय से सहायक है तो इसका र्थ यह हुआ कि परमार्थ से वह सहायक नहीं है, पर सहायकपने का व्यवहार ( कथन या विकल्प ) अवश्य होता है । इसलिए जब तत्वतः एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ सम्बन्ध ही नहीं है, ऐसी अवस्था में पटरी रेलगाड़ी की गति में परमार्थ से सहायक कैसे हो सकती है, अर्थात् नहीं हो सकती; किन्तु रेलगाड़ी स्वयं अपनी क्रियावती शक्ति के कारण हो गति करती है यह कहना और मानना ही परमार्थ से युक्ति युक्त ठहरता है । स० पृ० ३५ में समीक्षक का कहना कि "प्रेरक निमित्त का कार्य उपादान ( कार्यरूप परिरगत होने की योग्यता विशिष्ट वस्तु) को कार्यरूप परिणत होने के लिए सक्षम बनाने का है या य कहिये कि इसे कार्यरूप परिणत होने के लिए प्रेरित करने का है" सो यहाँ देखना यह है कि प्ररक निमित्त उपादान द्रयं के कार्य रूप से परिगमन के काल में निमित्त है या इसके पहले निमित्त है । यदि उपादानभूत द्रव्य के कार्यरूप से परिणमन करते समय निमित्त है तो 'प्रेरक निमित्त उपादान को कार्यरूप परिणत होने के लिए सक्षम बनाता है' यह कहना मिथ्या ठहरता है । यदि कार्यकाल के पहले निमित्त है यह स्वीकार किया जाता है तो यह मानना भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि कर्मशास्त्र के अनुसार जब उपादान द्रव्य कार्य रूप परिणमता है, तभी उसके योग्य (१) नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्त. - कर्मत्व सम्बन्धाभावे तत्कर्त ता कुतः ॥ | समयसार कलश २००॥
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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