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________________ • (१०) प्रेरक कारण के निपेध का दूसरा कारण नियत उपादान से नियत कार्य की स्वीकृति है। यह समीक्षक भी जानता है कि पागम में अव्यवहित पूर्वपर्याय युक्त द्रव्य को उपादान और अव्यचहित उत्तर पर्याय युक्त द्रव्य को कार्य रूप में स्वीकार किया है। नियत उपादान और उसके आधार पर होने वाले नियत कार्य की यह शृखला अनादिकाल से चली आ रही है। इसलिए इस आधार पर ही शंकरकार के द्वारा मानी गई न केवल प्रेरक कारण की मान्यता का खण्डन हो जाता है, अपितु इस आधार पर उसकी “उपादान अनेक योग्यतावाला होता है, अतः इस आधार पर कार्य प्रागे पीछे कभी भी किया जा सकता है" इस मान्यता का भी खण्डन हो जाता है । उपादान के लक्षण का और उससे होने वाले नियत कार्य का स्पष्टीकरण हम क्रमांक ५ में कर आये हैं । हमारा लिखना छलपूर्ण नहीं हमने जो यह लिखा है कि "संसारी आत्मा के विकारभान और चतुर्गतिभ्रमण में द्रव्यकर्म का उदय निमित्तमात्र है, उसका मुख्य कर्ता तो स्वयं प्रात्मा है।" सो हमारा यह लिखना इसलिए छलपूर्ण नहीं, क्योंकि जिनागम ऐसा ही है और आगे हमने जो यह लिखा है कि जिस-जिस समय जीव क्रोधादिभावरूप से परिणत होता है, उस-उस समय क्रोधादि द्रव्यकर्म के उदय को कालप्रत्यासत्ति होती है सो यह भी लिखना सही है, क्योंकि क्रोधभाव कर जव जीव मुख्य कर्ता है तो उसने स्वयं ही वह कार्य किया है । और हमने जो यह लिखा है कि उस-उस समय द्रव्यकर्म के उदय की काल प्रत्यासत्ति होती है सो इसका यह अर्थ है कि द्रव्यकर्म का उदय उस-उस समय उपचार से निमित्त होता है, क्योंकि कार्य और निमित्त में काल प्रत्यासति ही स्वीकार की गई है । देखो अष्टसहस्री पृष्ठ १११ ___ बाह्य निमित्त को सहकारी कहना उपचार से ही सम्भव है-बाह्य-निमित्ति अन्य के कार्य में सहकार करता है, सो यहाँ सहकार का समीक्षक क्या अर्थ करता है यह उसने कहीं भी स्पष्ट नहीं किया। उसने कार्य की उत्पत्ति होने पर सहकार को भूतार्थ अयश्य कहा है और स० पृ० २० में समीक्षक ने "कार्य की उत्पत्ति में निमित्ति होता ह" ऐसा स्वीकार करने मात्र को कार्य की उत्पत्ति में निमित्त की कार्यकारिता स्वीकार की है"। इस प्रकार कार्य की उत्पत्ति में निमित्त को दो प्रकार से समीक्षक स्वीकार करता है(१) कार्य की उत्पत्ति में निमित्त सहायक है या उसकी सहायता से कार्य की उत्पत्ति होती है यह मानना भूतार्थ है । स० पृ०५ (२) कार्य की उत्पत्ति में बाह्य निमित्त है, इसप्रकार कार्य की उत्पत्ति में अन्य द्रव्य निमित्त है, इसका अर्थ ही यह निमित्त का कार्यकारीपना मानता है । स० पृ. ५ इन दोनों वातों का क्रम से समाधान किया जाता है(१) यह तो आगम स्वीकार करता है कि आगम में जितना भी नयकथन किया गया है, वह प्रयोजन विशेप को ध्यान में रखकर ही किया गया है । इप्टार्थ की सिद्धि ही नय कथन का मुख्य प्रयोजन है, अन्यथा उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। ऐसी अवस्था में जब समीक्षक निमित्त कारण को अयथार्थ कारण मानता है, तव, उसे उपचरित या अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह भी मान लेना चाहिये कि वह अन्य द्रव्य के कार्यरूप परिणमनरूप क्रिया को भूतार्थ से नहीं कर सकता, अतः वह परमार्थ से अन्य द्रव्य के परिणमन
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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