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________________ ५१ (i) और इसीलिए ही अमृतचन्द्रदेव ने आत्मख्याति टीका में जीव पुद्गल कर्म को करता है, इस ज्ञान के कारण अनादि काल से चला आ रहा व्यवहार वतलाया है । गाथा ८४वीं) कर्मशास्त्र भी इसी अर्थ का समर्थन करता है । (देखो समयसार अव थोड़ा कर्मशास्त्र की दृष्टि से भी इस विषय पर विचार कर लिया जाय( ९ ) यह सभी शास्त्र स्वीकार करते हैं कि भय, शस्त्रप्रहार, संक्लेश परिणाम और श्वासोच्छवास के निरोध से ग्रायु का विच्छेद हो जाता है । और इसीलिए इन साधनों के बलपर जो मरण होता है, उसे अकाल मरण कहते हैं । कर्मकाण्ड कर्मशास्त्र का प्रमुख ग्रन्थ है । उसमें भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । मरण के तीन भेद हैं-च्युत, च्यावित भोर त्यक्त । उनमें से च्यावित मरण की इसी कोटि में परिगणना की जा सकती है। ऐसा होते हुए भी कर्मशास्त्र में प्रयुकर्म की अपेक्षा क्या व्यवस्था है इस पर थोड़ा दृष्टिपात कर लें. - कर्मशास्त्र के अनुसार ज्ञानावरणादि सात कर्मों का आवाघाकाल स्थिति बन्ध में सम्मिलित रहता है, परन्तु श्रायुकर्म का बन्ध होते समय उसका श्रावाधाकाल स्थिति बंध की स्थिति में सम्मि लित न होकर ग्रायुबन्ध के काल में जो भुज्यमान आयु शेप रहती है, तत्प्रमाण होता है । अव प्रश्न यह है कि जैसे सात कर्मों के आवाधाकाल को परिणाम विशेष से घटाकर मात्र एक अवलिप्रमारण किया जा सकता है, उस प्रकार बध्यमान आयुकर्म के आबाधाकाल को क्या कम किया जा सकता है ? अर्थात् जितनी मुज्यमान श्रायु के शेष रहने पर ग्रागामी भव की आयु का बन्ध होता है, उस शेष रही मुज्यमान आयु को संक्लेश आदि अन्य कारणों के मिलने पर क्या कम किया जा सकता है या शेप रही उस भुज्यमान प्रायु के पूरा होने पर ही इस जीव का मरण होगा ? यह एक मौलिक प्रश्न है । कर्मशास्त्र इस विषय में क्या व्यवस्था देता है, इसे श्रागमप्रमाण के प्रकाश में देखा जाय - जीवट्ठाण चूलिका अनुयोग द्वार में नरकायु धौर देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध ३३ सागरोपमप्रमाण बतलाकर उसकी उत्कृष्ट प्रावाधा पूर्व कोटि के त्रिभागप्रमाण बतलाई गई है । इस पर यहां यह शंका की गई है कि इस उत्कृष्ट स्थिति की उत्कृष्ट श्रावावा पूर्व कोटि के त्रिभाग से लेकर आसंक्षेपाद्धा काल प्रमाण तक कोई भी हो सकती है। ऐसी अवस्था में सूत्र में उत्कृष्ट प्रावाधाकाल पूर्वकोटि के त्रिभाग प्रमारण ही क्यों कहा गया है ? इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि श्रायुकर्म का जितना स्थिति-वन्ध होता है, उसकी निषेक स्थिति भी उतनी ही होती है । अन्य कमों का जितना स्थितिबन्ध होता है, वन्धकाल में उनकी निपेक स्थिति प्रावाधाकाल प्रमाण कम होती है । अर्थात् स्थितिवन्ध में से प्रावाधाकाल घटाने पर जो ara स्थिति शेष रहती है, तत्त्रमारण उनकी निपेक स्थिति होनी है। उदाहरणार्थ किसी ने १०० समय प्रमारण स्थिति बंध किया, अतः १०० समय में से प्रारंभ के प्रावावा सम्बन्धी समय कम कर देने पर उसकी निपेक स्थिति ६२ समयप्रमाण शेप रहेगी । स्थिति होती है । यहाँ आयुकर्म का उससे पूर्व कोटि । किन्तु प्रायुकर्म का जितना स्थिति-बन्ध होता है, उतनी ही उसकी नियेक श्रावाघाकाल प्रायुवन्ध काल से अलग भुज्यमान शेप रही स्थिति प्रमाण होता है उत्कृष्ट स्थिति-वन्ध लाना है, इसलिए ३३ सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति बंध है का विभाग अलग है । इसका अर्थ यह हुआ कि उस जीव ने ३३ सागरोपम उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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