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________________ ५० (४) कथंचित् सतः कार्यत्वम्, उपादानस्योत्तरी भवनात् । जो कथंचित् सत् है उसमें ही कार्यपना घटित होता है, क्योंकि उपादान का लगी पर्यायरूप होना इसका नाम कार्य है । (५) पहले हम उत्पाद, व्यय श्रोर ध्रोव्य में कथंचित् श्रभेद सिद्ध कर श्राये हैं और साथ में यह भी संकेत कर श्राये हैं कि यदि उत्पाद और व्यय भूतार्थ रूप से अन्य की सहायता से माने जाते हैं, तो पूरी वस्तु ही भूतार्थ अन्य की सहायता से बनी है यह मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा, किन्तु ऐसा नहीं है । किन्तु प्रति समय प्रत्येक वस्तु का उत्पाद जो कि पर्याय की अपेक्षा व्यय स्वरूप है, वह अपने उपादान के अनुसार ही होता है । श्रतः वाह्य निमित्त के अनुसार कार्य ( उत्पाद) होता है ऐसा कहना मात्र प्रसद्भूत व्यवहार ही है । इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा कारिका ७५ को अप्टसहस्त्री टीका में लिखा है "उपादानस्य पूर्णकारणेन क्षय: कार्योत्पाद एव हेतोनियमात्" उपादान का पूर्व श्राकार रूप से क्षय का नाम ही कार्यका उत्पाद है, क्योंकि दोनों में एक हेतु का नियम देखा जाता है । (६) पर की अपेक्षा से धर्म या धर्मी को, कर्ता या कर्म की, कारण या कार्य को, प्रमाण या प्रमेय की सिद्धि तो होती है, पर इनमें से किसी भी एक का स्वरूप पर से नहीं बना करता है, वह स्वयं होता है, इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए स्वामी समन्तभद्रदेव प्राप्तमीमांसा में कहते हैं धर्मधर्म्यविनाभावः सिद्धत्यन्योन्यवीक्षया । न स्वरूपं स्वतह्य तत् कारकज्ञापकांगवत् ॥ ७५ ॥ यद्यपि धर्म और धर्मी का अविनाभाव एक दूसरे को अपेक्षा सिद्ध होता है, परन्तु उनका स्वरूप एक दूसरे की अपेक्षा से नहीं सिद्ध होता, क्योंकि वह स्वतः सिद्ध है। जिस तरह ते कारकांग कर्ता और कर्म तथा ज्ञापकांग प्रमाण और प्रमेय की सिद्धि एक दूसरे की अपेक्षा सिद्ध होती हुई भी उनका स्वरूप स्वतः सिद्ध होता है, अन्य के द्वारा तो बनाया जाता ही नहीं । (७) इसीलिए समयसार कलश में प्राचार्यदेव समयसार कलश में घोषणा करते हुए कहते हैं रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया ना यद्रव्यं वीक्ष्यते किचनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तात्यंतं स्वभावेन यस्मात् ॥२१६॥ तत्त्वदृष्टि से राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाला ग्रन्य द्रव्य किंचितमात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सव द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अंतरंग में अत्यन्त व्यक्त प्रकाशित होती है । ऐसी अवस्था में समीक्षक ही बतावें कि उसके द्वारा माने गये प्रेरक कारण को जिनागम स्थान रह जाता है, अर्थात् कुछ भी स्थान नहीं रहता । वह मात्र कल्पना का विषय है । इसके सिवाय और कुछ नहीं ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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