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________________ स्वपक्ष की बात है। परपक्ष की दृष्टि में कौन उपचरित कथन है और कौन अंनुपंचरित कथन है इस विवेचना में पड़ने से कोई मतलव सिद्ध नहीं हाता। यहां तो आचार्य को मीमांसक के ऐकान्तिक मत का खण्डन करना इष्ट था। इसी बात को ध्यान में रखकर प्राचार्य ने अष्टशती के उक्त वचन का प्रयोग किया है । आगम का कथन स्पष्ट है . स. पृ. २७ में समीक्षक ने "समाधान पक्ष के दृष्टिकोण का अन्य प्रकार से निराकरण" शीर्षक के अन्तर्गत सर्वार्थसिद्धि (अ.५ सू. ७) का उद्धरण देकर जो अपनी इच्छानुसार अर्थ फलित किया है, उसे उनकी ही अपी स्वतन्त्र कल्पना कहना चाहिये, क्योंकि हम यह पहले ही बतला पाये हैं किं सर्वत्र स्वप्रत्यय परिणमन का अर्थ स्वभाव पर्याय लिया गया है और स्वपर प्रत्यय परिणमन का अर्थ विभाव पर्याय लिया गया है। यद्यपि स्वप्रत्यय परिणमन में बाह्य निमित्त अवश्य होता है, पर उसकी वहां दृष्टि में गौरणता रहती है। इतना अवश्य है कि पड्गुरंगी हानि और पड्गुणी वृद्धि में से एक काल में कोई एक हानि या कोई एक वृद्धि नियम से होती है। तब कौन हानि होती है और कौन वृद्धि होती है इसका निश्चय नियम होकर भी वह हमारी प्रत्यक्ष बुद्धि का विषय नहीं है। कार्य के आधार पर अनुमान अवश्य समर्थ उपादान के आधार पर किया जा सकता है। (स. पृ. २६) मिट्टी का अन्वय संदाकाल पाया जाता है। घट के फूटने पर भी मिट्टी का अन्वय बना रहता है। यहां मिट्टी अन्वय के रूप में विवक्षित है, कुशून का अंन्वय सदाकाल बनता नहीं है, इसलिये घट में कुशूल का अंन्वय नहीं कहा जाता है इतना समीक्षक को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये । अतः ऐसी बातं लिखकर व्यर्थ के कलेवरं को बढ़ाना योग्य प्रतीत नहीं होता। विवाद का मुद्दा तो इतना ही है कि कार्य होते समय वाह्य वस्तु में जो निमित्तता स्वीकार की गयी है, वह निमित्तता उसमें भूतार्थ है या उपचार से कही जाती है । आगम के अनुसार तो वह उपचंरित ही मानी गयी है। यही हमारा लिखना भी है और कहना भी है। आगम से भी इसका समर्थन होता है, वह पागम है समयसार गाथा १०६, १०७ और १०८ आदि । यदि कहा जाय कि उक्त गाथा में अन्यं द्रव्यों के कार्य भूतार्थ से अन्य द्रव्यं करते हैं इसका निपेष किया है, इससे निमित्त के सहायक होने का निपेध कहां हुी । तो इस पर हमारा कहना यह है कि यदि जब अन्य द्रव्य तद्भिन्न अन्य द्रव्य के रूप परिणमने की परमार्थ से क्रिया नहीं कर सकता, जैसा कि समयसार गाथा १०७ से स्पष्ट ज्ञान होता है, तो फिर उसे अन्य द्रव्य के कार्य का सहायक कहना यह उपचार से ही तो बनेगा, भूतार्थ से उसे सहायक कहना यह आगम के नाम पर अपने विचारों को चलाना ही तो कहलायेगा । पृ. २४ (स.) में गुणस्थानों की चर्चा करते हुए जो द्वादश आदि गुणंस्थानों की उत्पत्ति के जिन निमित्तों का उल्लेख किया सो उनका हमने तो निषेध किया नहीं। हमारा कहना तो इतनी ही है कि बारहवां आदि गुणस्थानों की उत्पत्ति का मूल कारण तो उपयोग में स्वभाव के पालम्बन से रत्नत्रय का सद्भावरूप परिणमना ही है । जब यह जीव आत्म पुरुषार्थ को जाग्रत कर रत्नत्रयरूप परिणाम सें परिणत होती है. तब स्वयं कर्म की हानि होने लगती है और अंत में मोहनीय और ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वयं क्षय होकर स्वयं ही यह जीव प्रात्मपुरंपार्थ को जाग्रत कर इन गुणस्थानों को प्राप्त कर
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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