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________________ "पर्यायशक्तिसमन्विता हि द्रव्यशक्तिः कार्यकारिणी, विशिष्ट पर्यायपरिणतस्यैव द्रव्यस्य कार्यकारित्वप्रतीतेः” हमने श्रर्थ करने में कोई भूल नहीं की समीक्षक ने (स० पृ० २३ में ) इष्टोपदेश के अर्थ को लेकर जो विवाद खड़ा किया है। वह योग्य नहीं प्रतीत होता । इष्टोपदेश श्लोक का तीसरा चरण इतना ही है- "निमित्तमात्रमन्यस्तु" । इस चरण में अन्य निमित्त मात्र इतना ही कहा गया है । सवाल यह है कि जो भी निमित्त होगा वह किसी कार्य का तो निमित्त होगा ही । प्रतएव “विवक्षित कार्य का" इतना वाक्यांश श्रपने श्राप फलित हो जाता है। वह विवक्षित कार्य कुछ भी हो सकता है। यहां [स० पृ० २४] समीक्षक ने निमित्त का अर्थ सहकारी काररण किया है सो उपचार से ऐसा अर्थ करने में आगम में कोई बाधा नहीं आती । ४१ " नन्वेवं" इत्यादि पदों का समीक्षक ने जो अर्थ लिया है, वह उसकी केवल बुद्धि का व्यायाम मात्र ही है । निष्कर्ष रूप में यहाँ यह समझना चाहिये - १. पृ. २६ के आधार पर निमित्त किसी प्रकार का भी क्यों न हो, वह कार्य का व्यापार करने के प्रति उदासीन ही होता है । इस अपेक्षा से वह परका कार्य करने ३. योग्यता द्रव्य रूप भी होती है और पर्यायरूप भी होती है, दोनों के मिलने पर उनके अनुसार नियम से कार्य होता है। यह जिनागम का सार है । २. निमित्त अन्य के कार्य का व्यापार नहीं करता में किचित्कर ही है । स. पू. १७ में समीक्षक ने स. पू. २२ में दिये गये 'प्रमेय कमलमार्तण्ड' के उद्धरण का जो श्राशय फलित किया है, वह उसकी अपनी सूझ है, क्योंकि पर्याय के उत्पत्तिकाल में ही काल प्रत्यासत्तिवश अन्य में निमित्त व्यवहार किया जाता है ऐसा श्रागम का नियम है। कोई किसी को खींचकर नहीं लाता, ऐसा व्यवहार अवश्य होता है । -- सं. पृ. २६ में अष्टसहस्रीगत अष्टशती में यह वचन आया है। - तदसामर्थ्यमखण्डयद किचित्करं कि सहकारिकारणं स्यात् (पृ. १०५ ) मन्तव्य को ध्यान में यह वचन भट्टाकलंकदेव ने मीमांसकों के प्रति उपालम्भ के रूप में प्रयुक्त किया है, क्योंकि मीमांसक शब्द को सर्वथा नित्य मानता है, फिर भी तालु आदिका आलम्बन लेकर शब्द की प्रवृत्ति भी स्वीकार करता है । उसके ऐसे दुराग्रहपूर्ण रखकर ही भट्टाकलंकदेव ने उलाहने के रूप में उससे यह वचन कहा है कि " शब्द के सर्वथा नित्य होने के कारण उसके कार्यरूप में न हो सकने रूप असामर्थ्य का खण्डन न करते हुए सहकारी कारण क्या अकिंचित्कर ही बना रहता है ?" सो यहां सामने प्रतिपक्ष है, उसके एकान्त मत का खण्डन किया जा रहा है, इसलिये उसके एकान्त मत के खण्डन को ध्यान में रखकर आचार्यदेव ने यह वचन कहा है । अतः ऐसे वचन को • ध्यान में रखकर समीक्षक ने जो अपने इष्टार्थ को फलित करना चाहा, वह योग्य नहीं है । शब्दों के प्रयोग में तालु आदि निमित्त होते ही हैं, और वे उपचार से सहकारी कारण भी कहे जाते हैं, यह
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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