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________________ अब उक्त प्रमाण का अर्थ देते हैं ऋजुसूत्रनय की मुख्यता से तो पूर्व अनन्तर (अव्यवहित) पर्याय ही प्रागभाव कहलाता है, और ऐसा होने पर कार्य के पूर्व परिणाम की अनादि सन्तति में कार्य के सद्भाव का प्रसंग नहीं प्राप्त होता, क्योंकि प्रागभाव के विनाश में ही कार्यरूपता स्वीकार की गई है। यह आगम वचन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा कार्य से अव्यवहित पूर्व पर्याय का नाम प्रागभाव है। समर्थ पर्यायार्थिक निश्चय उपादान भी उसी का नाम है। (३) यदि समीक्षक कहे कि हमने उपादान को जो अनेक योग्यता वाला लिखा है वह व्यवहारनय से ही लिखा है, सो उसका ऐसा लिखना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि व्यवहार नय से उपादान अर्थात् प्रागभाव का लक्षण लिखते हुए आचार्य विद्यानन्द अण्टसहस्री में कहते हैं -- .. व्यवहारनयापरणात्तु मदादिद्रव्यं घटादेःप्रागभाव इति वचनेऽपि प्रागभावस्वभावता घटस्य न दुर्घटा, यतो द्रव्यस्याभावासंभवान्न जातु चिदुत्पत्तिर्घटस्य स्यात्, कार्यरहितस्य पूर्वकालविशिष्टस्य मदादिद्रव्यस्य घटादिप्रागभावरूपतोपगमात, तस्य च कार्योत्पत्तौ विनाशसिद्धः कार्यरहितविनाशमन्तरेण कार्यसहितयोत्पत्योगमात् कार्योत्पत्तेरेवोपादानात्मकप्रागभावक्षयस्य वक्ष्यमारणत्वात् । (पृ.-१००) ___ व्यवहारनय की मुख्यता से तो मिट्टी आदि द्रव्य घटादि कार्यों का प्रागभाव है ऐसा कथन करने पर भी प्रागभाव की प्रभावस्वभावता घट की दुर्घट नहीं है, जिससे कि द्रव्य का अभाव सम्भव न होने से कभी भी घट की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी यह कहा जावे, क्योंकि जिनागम में पूर्व कालविशिष्ट कार्यरहित मिट्टी आदि द्रव्य घटादि कार्यों की प्रागभावरूपता स्वीकार की गई है और उसका कार्य की उत्पत्ति होने पर विनाश होना सिद्ध है, क्योंकि कार्यरहित मिट्टी आदि द्रव्य आदि का विनाश हुए बिना कार्यसहित रूप से उसकी उत्पत्ति नहीं बन सकती। कार्य की उत्पत्ति ही उपादान स्वरूप प्रागभाव का क्षय है यह आगे कहेंगे ही। (4) इस प्रकार उभयनय की युगपत् विवक्षा में अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त मिट्टी ही घटका उपादान सिद्ध होने पर उससे अव्यवहित उत्तर समय में नियत घट की ही उत्पत्ति होगी। वहाँ कुभकार के योग और उपयोग (विकल्प) के बल पर अन्य सकोरादि कार्यों की किसी भी अवस्था में उत्पत्ति नहीं हो सकती । इसलिये समीक्षक ने प्रेरक निमित्त का जो यह लक्षण किया है कि "प्रेरक निमित्त वे हैं जिसके साथ कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती हैं" ठीक नहीं है, क्योंकि प्रेरक निमित्तों के बल पर वह (समीक्षक) नियत उपादान से नियत कार्य की उत्पत्ति होती है इस सिद्धान्त का अपलाप कर देना चाहता है। चाहे कार्यों के साथ बाह्य निमित्तों की अन्वय व्यतिरेक व्याप्तियाँ कही जायें और चाहे बाह्य निमित्तों के साय नियत कार्यों की अन्वय व्यतिरेक व्याप्तियाँ कहीं जावें, दोनों ही अवस्थाओं में नियत उपादान से ही नियत कार्यों की उत्पति होती है, यह निश्चित है । आगम में समर्थ उपादान कारण का जो लक्षण दिया गया है वह इस नियम का उल्लंघन नहीं करता । आगम प्रमाण सहित समर्थ उपादान का लक्षण हम पहले दे ही आये हैं ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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