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________________ ३३ श्लोकार्थ :- भगवन् ! आपके सभी कार्यों में वाह्य और अभ्यन्तर उपाधि की समग्रता रहती है । यह द्रव्यगत स्वभाव है ऐसा स्वीकार किया है । अन्यथा संसारी जीवों को मोक्ष विधि नहीं बन सकती, इस काररंग ऋषिस्वरूप श्राप बुद्धिमान पुरुषों के लिये वन्दनीय हैं । । कार्य-कारण भाव का यह अकाट्य मियम है जिसकी स्वामी समन्तभद्र ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की है । अव सवाल यह है कि कौन कार्य किस विधि से सम्पन्न होता है, किसमें किस की मुख्यता रहती है ? इसमें तो कोई विवाद नहीं कि प्रत्येक कार्य में दोनों की समग्रता रहती है । विवाद मुख्यता और गौरगता का है साथ ही नियत उपादान हो और उसका निमित्त हो या उपादान अनेक योग्यता वाला हो और निमित्त उनमें से किसी एक कार्य का साधक हो या विवक्षित कार्य का नियत उपादान मौजूद हो और उसकी बाधक सामग्री उपस्थित हो जाय तो कार्य होगा या नहीं और होगा तो वह किसके अनुसार होगा ? इस प्रकार विवाद के अनेक मुद्दे हैं, जिन पर यहाँ सांगोपांग विचार करना है । साधारणतः सभी कार्यो के जितने भी वाह्य निमित्त स्वीकार किए जाते हैं, वे दो भागों में विभाजित किये जा सकते हैं- - एक वे, जो त्रैकालिक बाह्य व्याप्तिवश अपनी क्रिया द्वारा निमित्त होते हैं और एक वे जो अपनी क्रिया द्वारा निमित्त नहीं होगा, मात्र विवक्षित कार्य के साथ त्रैकालिक व्याप्ति को देखकर उनमें निमित्त व्यवहार किया जाता है । इतना अवश्य है कि बाह्य निमित्त किसी भी प्रकार का क्यों न हो, उपादान के कार्य रूप परिणति के काल में त्रैकालिक व्याप्तिवश उसका होना आवश्यक है । यह एक निश्चित नियमबद्ध व्यवस्था है, जिसे ध्यान में रखकर ही स्वामी समन्तभद्र ने भगवान् परम भट्टारक तीर्थङ्कर देवाधिदेव के कथन को अनु"स्मरण करते हुए "बाह्य तरोपाधि" .." इत्यादि कारिका निबद्ध की है । (२) इस वियम को ध्यान में रखने पर तो यही निश्चित होता है कि जितने भी कार्य होते हैं उतने ही उनके समर्थ या नियत उपादान होते हैं । उपादान अनिश्चित हो या उपादान अनेक योग्यता वाला हो और निमित्त के आधार पर उसमें कार्य की उत्पत्ति होती हो ऐसा आगम में कहीं बतलाया नहीं गया है अन्यथा उपादान से होने वाले कार्य के साथ उनकी निमित्तों की बाह्य व्याप्ति नहीं बन सकती । यहाँ कारण है कि ग्रागम में नियत प्रति नियत उपदान का लक्षण टगोचर होता है - अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य को उपादान कहते हैं । यहाँ जिसे नियत उपादान कहा गया है उसकी आगम में दूसरी संज्ञा प्रागभाव है । अष्टसहस्री में प्राचार्य विद्यानन्द इसे ध्यान में रखकर लिखते हैं ऋजुसूत्र नयापर्णाद्धि प्रागभावस्तावत् कार्यस्योपादानपरिणाम एवं पूर्वोनन्तरात्मा । न चैतस्मिन् पूर्वानादि-परिणामसन्ततौ कार्यसद्भावप्रसंगः, प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् (पृ. १०० ) · यह उपादान उपादेयभाव की निश्चित व्यवस्था है । शंकाकार इस व्यवस्था को न मानकर अपनी इच्छानुसार उपादान उपादेयभाव की व्यवस्था करने पर तुला हुआ है। यही उसकी है । -
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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