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________________ १७ समीक्षक का मत है कि यहाँ ज्ञानावर्णादि कर्मोके क्षयसे सूत्रकार को कम पर्यायरूप उत्पाद विवक्षित है, परन्तु विचार करने पर विदित होता है कि प्रकृत में केवलज्ञानादि पर्यायकी उत्पत्तिमें सूत्रकार को ज्ञानावरणादि कर्मीका क्षय ही विवक्षित है, ग्रप्टसहस्त्री मे आये हुए अप्टशती और अष्टसहस्त्री के इन वचनोंसे स्पष्ट ज्ञात होता है । मणेर्मलादेर्व्यावृत्तिः क्षयः, सतोऽत्यन्त विनाशानुपपत्तेः । ताद्यगात्मनोऽपि कर्मणो निवृत्ती परिशुद्धि: । (अण्टस सहस्री पृष्ठ ४३ ) प्रध्वंसाभावो हि क्षयो हानिरिहाभिप्रेता । सा च व्यावृत्तिरेव मणेः कनकपापरणाद्वा मलस्य किट्टा | (अण्टसहस्त्री पृष्ठ ४३ ) मरिगमेंसे मलादिककी व्यावृत्ति हो जानेका नाम क्षय है, क्योंकि सत्का अत्यन्त नाश नहीं हो सकता । उसी प्रकार आत्माकी भी, कर्मकी निवृत्ति हो जाने पर शुद्धि हो जाती है । प्रध्वंसाभाव अर्थात् क्षयरूप हानि यहां अभिप्रेत है और वह मरिणमेंसे मलकी और कनक पापारणमेंसे किट्टादिकी निवृत्तिके समान व्यावृत्तिरूप ही है । इस प्रमाण से यह स्पष्ट हो जाता है कि सूत्रकार ने यहां पर ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयरूप प्रध्वंसाभावको उसकी अकर्मरूप उत्तरपर्याय के रूप में ग्रहण न करके, क्षयरूप प्रध्वंसाभाव कोही ग्रहण किया है यह स्पष्ट है । इसी प्रकार मीमांसकने पृष्ट २८० (वरैया) में मुद्दा ५ को उपस्थित करके परावलम्बन रूप वृत्तिको जो वास्तविक संसारका कारण कहकर उपचरित माननेका निपेध किया है, सो उसका ऐसा लिखना भी ठीक नहीं है, क्योंकि परावलम्वनवृत्ति रागानुरंजित सविकल्प परिणति है, जो कि परवस्तु में अपनेपन की कल्पना के कारण होती है और इसीलिये उसे आचार्योंने उपचरित माना है । इसका अर्थ यह है कि जव परवस्तु परमार्थ से अपनी हो ही नहीं सकती, ऐसी अवस्था में उसे अपना मानना या कहना, मात्र कल्पना के और क्या हो सकता है ? और ऐसी कल्पना ही अज्ञान की जननी होने से वही अज्ञान अर्थात् मिथ्यात्वादिभाव संसारके कारण होते हैं, यह स्पष्ट है । इसी प्रसंग से शंकाकार ने यह लिखा है कि "इससे जीव के संसार की सृष्टि में निमित्तों की श्राश्रितता सिद्ध हो जाने से कार्य केवल उपादानके बल पर ही उत्पन्न होता है, इस सिद्धान्त का व्याघात होता है" सो उसका ऐसा लिखना भी आगमविरुद्ध है, क्योंकि किसी वस्तु में (अपने कार्य के समय) अन्य वस्तुकी प्रश्रितता नहीं होती । श्रन्य द्रव्य के कार्य में अन्य की श्राश्रितता मानना यह मात्र अज्ञानी का एक विकल्प है । इसलिये जो श्रागममें यह स्वीकार किया गया है कि निचश्यसे कार्य केवल उपादान के वल पर ही होता है, वह यथार्थ है और निमित्तसे वस्तुतः कार्य होता है, यह एक अज्ञानी का विकल्प है । आगे पृष्ठ २८८ ८८ ( वरैया ) में मीमांसक ने जो जीव और पुद्गल की मिलावट को संसार लिखा है, सो उसका ऐसा लिखना भी श्रागमविरुद्ध है, क्योंकि जीव की मिथ्यादर्शनादिरूप पर्याय का नाम ही संसार है और जीव का सम्यग्दर्शनादिरूप परिणत होने का नाम ही मोक्ष है । इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुये रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है :
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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