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________________ १६ उपादानके साथ मिलकर कार्यकी उत्पत्ति रूप क्रिया करे । परन्तु पागमके अनुसार जब दा द्रव्य मिलकर एक क्रिया कर ही नहीं सकते ऐसी अवस्थामें निमित्तको कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक कहना भूतार्थ न होकर अभूतार्थ ही ठहरता है। दो द्रव्य मिलकर एक क्रिया नहीं करते इसकी पुष्टि करते हुये समयसार आत्मख्याति टीकामें लिखा भी है—(कलश) "नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायत । उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥५३ ।। दो द्रव्य एक परिणमन नहीं करते, दो द्रव्योंका एक परिणाम नहीं होता और दो द्रव्यों की एक क्रिया (परिणति) नहीं होती, क्योंकि दो (अनेक) द्रव्य हैं वे सदा अनेक ही रहते हैं, वे बदलकर एक नहीं होते । आगे यह भी लिखा है कि : कस्य हि कर्तारौ दो कर्मणी न चैकस्य नकस्य च क्रिये द्व एकमनेकं यतो न स्यात् ॥ ५४॥ एक कार्य के दो कर्ता नहीं होते, एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते तथा एक द्रव्य की दो क्रियायें नहीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्य नहीं होते। इसप्रकार इन वचनोंके अनुसार तो जिसे हम निमित्त कहते हैं वह उपादानके कार्यमें परमार्थ से अणुमात्र भी सहायक नहीं हो सकता। हां, कालप्रत्यासत्तिवश उसमें (निमित्त में) सहायकपने का असद्भूत व्यवहार अवश्य हो जाता है। उपादान द्रव्य जब अपनी क्रिया करता है उसी समय जिसे हम कार्यका निमित्त कहते हैं वह भी उपादान होकर स्वयंकी क्रिया करता है। अतः निमित्त उपादान के कार्य में सहायक होता है, यह कहना या मानना उपचार ही तो ठहरता है, ऐसी अवस्था में वह परमार्थ से उपादानके कार्यका सहायक कसे माना जा सकता है ? । इस प्रकार १, २, ३ व १७ नम्बर के मुद्दों के आधार पर विचार किया गया। अव मीमांसकने वरैया पृष्ठ २३४ के अनुसार ज्ञानावर्णादि कर्मों के क्षयरूप प्रध्वंसाभावको उनकी अकर्मरूप उत्तर पर्याय के रूप में ग्रहण करना तत्वार्थसूत्रकार के अनुसार जो माना है उसका वैसा मानना प्रकृतमें क्यों युक्तियुक्त नहीं है, इस पर आगे विचार किया जाता है। यद्यपि क्षयका अर्थ विवक्षाभेदसे उत्पाद ही होता है, परन्तु क्षय (व्यय) में और उत्पादमें प्राचार्यों ने लक्षणभेद से भेद स्वीकार किया है । जैसा कि प्राप्त मीमांसा में कहा भी है "कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानदानपेक्षः खपुष्पवत् ॥ ८४ ॥ उपादान का पूर्वाकारसे क्षय कार्य का उत्पाद ही है, क्योंकि उन दोनों में एक हेतु से होने का नियम देखा जाता है। किन्तु लक्षण भेद से वे दो हैं-वे अलग-अलग हैं । जाति आदिका अवस्थान होने से सर्वथा दो नहीं है । यदि उन दोनों को सर्वथा अनपेक्ष मान लिया जावे तो अाकाश के फूल के समान उनका अभाव हो जावेगा इसप्रकार व्यय और उत्पाद इन दोनों के कथंचित् एक होने पर भी लक्षणभेद से वे दो हैं, यह सिद्ध हो जाने पर भी प्रकृत में केवलज्ञानादि की उत्पत्तिमें ज्ञानावर्णादि कर्मों का क्षय होकर सूत्रकार को अकर्म पर्यायरूप उत्पाद विवक्षित है, यह देखना है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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