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________________ १२) समयप्राभूत मैं सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार के जो प्रारम्भ. को तीन गाथाएँ पाई हैं उनकी सोका के एक प्रश "जीवोहि तावात् क्रमनियमितात्मपरिणामरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः" इत्यादि वचन का अर्थ अपने पक्ष में करने में भी वे नहीं चूके हैं । साथ ही उन्होने 'क्रमनियमितात्मपरिणामै' इसका अर्थ ही छोड़ दिया है। (३) मैने कहीं पर उपादानोपादेय के अर्थ में कार्यकारणभाव को ध्यान में लेनेपर क्रमनियमित पर्याय की सिद्धि हो जाती है यह लिखा था, उसे उन्होंने अपने मन से माने हुए कार्य-कारणभाव के समर्थन में उसका उपयोग कर लिया है । जव कि क्रमनियमित पर्याय को स्वीकार करने पर अनन्त पुरुषार्थ की सिद्धि होती है उसका भी विपर्यास करके इससे पुरुषार्थ हानि का प्रारोप करने में वे या इसीप्रकार के दूसरे भाई नहीं चूके हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि यह पुस्तक भी उन्होंने आगम का अपलाप करने के अभिप्राय से ही लिखी हैं। पागम में तो आचार्य अमृतचन्द्र देव ने लटकती हुई मोतियों की माला का उदहरण देकर क्रमनियमित पर्याय का ही समर्थन किया है, पर व्याकरणाचार्य जी को आगम की चिन्ता नहीं । विशेष क्या लिखें? --फूलचन्द्र शास्त्री प्रस्तुत प्रकाशनों की कीमत कम करने हेतु प्राप्त राशियाँ १. श्री त्रिलोकचंद वर्षीचंद जैन, बम्बई २. श्री जयन्ती भाई डी दोशी, दादर-बम्बई ३. श्रीमती कुसुमलता सुनंद बंसल स्मृतिनिधि, अमलाई ४. न हीराबेन विद्यावेन, सोनगढ़ ५. मै० नन्दराम सूरजमल, दिल्ली ६. श्री छगनलाल जैन, अजमेर ७. श्रीमती धूड़ीबाई खेमराज गिडिया, खैरागढ़ ८. चौ० फूलचंद जैन, बम्नई ६. फुटकर २५०-०० १११-०० १११-०० १०१-०० १०१-०० १०१-०० १०१-०० १०१-०० ५१-०० १०२८-००
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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