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________________ २६ '] ही है, इसी लिये उनमें व्यवहार सम्यग्दर्शन आदि का व्यवहार किया जाता है । इसी बात को पंचास्तिकाय गाथा 62 में स्पष्ट किया गया है । इसी पंचास्तिकाय में व्यवहार मोक्षमार्ग क्या है और निश्चय मोक्षमार्ग क्या है इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है : धम्मादीसह सम्मतं णाणामंगपुव्वगदं । चेट्ठा तव म्हि चरिया बवहारो मोक्खमग्गो त्ति ॥ १६०॥ धर्मादि द्रव्यों और पदार्थों की श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है, अंगपूर्व सम्बन्धी ज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान है और बारह प्रकार के तपरूप ग्राचरण करना व्यवहार सम्यकुचारित्र है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग है । उन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन रूप परिणत जो श्रात्मा है वह निश्चयनय से मोक्षमार्ग है। ऐसा श्रात्मा न तो कुछ करता है और न कुछ छोड़त है । प्रकृत में इन दोनों में साघन और साध्यभाव सिद्ध किया गया है । यहाँ साधन का श्रर्थ निमित्त है और साध्य का अर्थ कार्य है । इससे "बाह्यतरोपाधि समग्रतेयं" इस सिद्धान्त की सिद्धि हो जाती है । इनमें कालप्रत्यासत्ति और बाह्य व्याप्ति होती है यह भी सिद्ध हो जाता है । निश्चय मोक्षमार्ग को यथार्थ और व्यवहार मोक्षमार्ग को उपचरित जो श्रागम में कहा गया है वह इसी अभिप्राय से कहा गया है । तथा निमित्तपने को दृष्टि से ही व्यवहार मोक्षमार्ग को परम्परा की अपेक्षा मोक्षमार्ग कहा गया है । इसका अर्थ है कि उसमें यथार्थं मोक्षमार्गपना तो नहीं है पर उसका निमित्तपना उसमें प्रसद्भूत व्यवहारनय से है, इसीलिये पंचास्तिकाय को टीका में उसे साधन और निश्चय मार्ग को साध्य कहा गया है । यह तो एक बात हुई । विचार कर देखा जाय तो यह ग्रन्थ प्रसद्भूत व्यवहारनय के विषय का भूतार्थं सिद्ध करने के लिये ही लिखा गया है । इसलिये इस विषय पर हम और कितना लिखें । उसका पद-पद विचारणीय है । उसे व्याकरणाचार्य जी ने अपनी मानी हुई दृष्टि को स्पष्ट करने के लिये लिखा है । ग्रागम में निश्चयनय, सद्भूत व्यवहारनय और प्रसद्भूत व्यवहारनय जो लक्षण दिये हैं, उनसे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है । खींचतान करके अपने अभिप्राय को पुष्ट • करना ही उनका प्रयोजन है । उनकी (व्याकरणाचार्य जी को ) एक पुस्तक क्रमवद्धपर्याय के खण्डन में भी निकली है । यह पुस्तक उन्होंने- पुग्वपरिणामजुतं कारणभावेण वट्टदे दव्वं । उत्तरपरिणामंजुत्तं तं चिय कज्जं हवे नियमा ॥ (१) उन्होंने इस आगम कथित उपादान उपादेय के लक्षण को न मानने के प्राधार पर ही लिखी है ऐसा उसे पढ़ने से ज्ञात होता है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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