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________________ २४ ] मिथ्या, कल्पित, कथनमात्र मोक्षमार्ग होने से ही व्यवहार मोक्षमार्ग को यहां पर प्रयथार्थ, असत्यार्थ, गौण, उपचरित, और प्रभूतार्थं श्रादि नामों से पुकारा गया है। उक्त कथन से सोनगढ़ की इस मान्यता के निरस्त होने में हेतु यह है कि निश्चय और व्यवहार दोनों ही मोक्षमाग उपर्युक्त विवेचन के प्राघार पर सच्चे सिद्ध होते हैं । इस बात को न समझने के कारण यहाँ सोनगढ़ यद्यपि यह ग्रापत्ति प्रस्तुत करता है कि " निश्चय मोक्षमार्ग के साथ व्यवहार मोक्षमार्ग को भी सच्चा मोक्षमार्ग मान लेने पर दोनों मोक्षमार्गों में स्वतन्त्र रूप से पृथक्-पृथक् मोक्षमार्ग की प्रसक्ति हो जाने से निश्चय मोक्षमार्ग के बिना केवल व्यवहार मोक्षमार्ग से ही भव्य जीवों को मोक्ष प्राप्ति का प्रसंग उपस्थित हो हो जायेगा । ( ) ऐसे चिन्ह तो विवक्षित कथन में लगाये हैं, पर सोनगढ़ के किस ग्रन्थ के उद्धरण हैं यह पता नहीं लगता इससे यदि कोई अनुमान करे कि व्याकरणाचार्य जी ने स्वयं लिखकर उन्हें सोनगढ़ का वतलाया है तो कोई प्रत्युक्ति नहीं होगी । परन्तु इसके विपरीत उपर्युक्त विवेचन से यही निर्णीत होता है कि मुमुक्षु भव्य जीव को मोक्ष की प्राप्ति निश्चय मोक्षमार्ग होने पर और उस निश्चय मोक्षमार्ग की प्राप्ति और उसकी पूर्णता व्यवहार मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने पर ही होती है, अन्यथा नहीं | (पृ. 220 - 221 ) इस कथन के पहले व्याकरणाचार्यजी ने एक बात और लिखी है वह यह कि "आगम में निश्चय मोक्षमार्ग को जो यथार्थ, सत्यार्थ, मुख्य, परमार्थ और भूताथं श्रादि नामों से पुकारा गया है उसका कारण उसमें विद्यमान मोक्षकारणता की साक्षाद्रूपता ही है तथा वहां पर व्यवहार मोक्षमाग का जो यथार्थ, असत्यार्थ, गौण, उपचरित भौर अभूतार्थ आदि नामों से पुकारा गया है उसका कारण उसमें विद्यमान मोक्षकारण की परम्परारूपता ही है ।" (पृ. 220) ये व्याकरणाचार्य जी के दो वक्तव्य हैं । श्रव इस विषय में श्रागम क्या है इस पर दृष्टिपात् करने के बाद ही व्याकरणाचार्य जी के वक्तव्य पर विचार करेंगे । इन उद्धरणों में व्याकरणाचार्यजी ने निश्चय मोक्षमार्ग के समान व्यवहारं मोक्षमार्ग को भी सच्चा सिद्ध किया है, क्योंकि निश्चय मोक्षमार्ग में साक्षात्कारणता विद्यमान है और व्यवहार मोक्षमार्ग में परम्परा कारणता विद्यमान है यह व्याकरणाचार्य जी के उक्त कथन का निचोड़रूप अभिप्राय है । अब उनके इस कथन पर विचार किया जाता है । सम्यग्दर्शन क्या है, स्वभावभाव तत्त्वरुचि यथार्थ सम्यग्दर्शन नही है ? शुभभाव, अशुभभाव और स्वभावभाव इन तीनों बातों वा सक्षेप में खुलासा करने के बाद ही प्रवृत विषय का समीक्षापूर्वक समाधान करेंगे । (1) सम्यग्दर्शन क्या है इसे स्पष्ट करते हुये पं. प्रवर प्राशाधरजी अनगार धर्मामृत (2,46-47) की स्वोपज्ञ टीका में लिखते हैं तद्ददर्शनं मोहरहितमात्मास्वरुपम् । वह सम्यग्दर्शन दर्शनमोह से रहित ग्रात्मा का स्वरूप है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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