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________________ [२३ यहाँ उक्त गाथा से दो वातें स्पष्ट हो जाती हैं कि : (1) एक तो निश्चयनय से देखा जाय तो प्रत्येक द्रव्य पर निरपेक्ष होकर स्वयं ही अपना कार्य करता है। (2) दूसरेफिर भी बाह्य व्याप्तिवश या काल प्रत्यासत्तिवश कार्य से बाह्य और आभ्यन्तर उपाधि की समग्रता प्रत्येक समय में रहती ही है । ऐसा एक क्षण भी नहीं होता जिस समय कार्य में इन दोनों की समग्रता न हो, इसलिये "इससे यह कार्य हुआ" ऐसा व्यवहार प्रत्येक समय में वन जाता है । इसी लिये बाह्य निमित्त की सहायता को कार्यद्रव्य में असद्भूत स्वीकार किया जाता है, क्योंकि संसारी जीव के तथा स्कन्धरूप पुद्गल द्रव्य के प्रत्येक कार्य में "यह इससे हुया" ऐसा व्यवहार होता है । इस प्रकार असद्भूत व्यवहारनय से वाह्य निमित्त को कार्य का साधक कहा जाता है। इसी आधार पर यह निश्चित होता है कि वाह्य निमित्त की सहायता को जो व्याकरणाचार्य जी भूतार्थ मानते हैं वह यथार्थ नहीं है, क्योंकि वह पारापित या काल्पनिक ही है, वास्तविक नहीं। बाह्य व्याप्तिवश ऐसा विकल्प होना या कहना अन्य बात है, पर ऐसा विकल्प हुया या कहा, मात्र इसीलिये वह (वाह्य निमित्त की सहायता) भूतार्थ नहीं हो जाता । इस प्रकार व्याकरणाचार्यजी ने (खा. त. च.) या (स.) में जिन 30 वातों के आधार पर अपने मत की पुष्टि की है उनका वह मत आगम सम्मत कैसे नहीं है इसका स्पष्टीकरण करके अव उनके अन्य दो ग्रन्थों में परिणत विषय कैसे समांचीन नहीं है इस पर संक्षेप में विचार करेंगे। यहां सर्वप्रथम "जैन शासन में निश्चय और व्यवहार" ग्रन्थ विचारणीय है। इसे दिगम्बर जैन विद्वत्परिपद से पुरस्कार भी मिला है । इससे मालुम पड़ता है कि इस पर विद्वत परिषद ने विना विचारे मुंहर लगा दी है। ऐसी जगह मात्र उपसमिति का यह काम नहीं होता । उस ग्रन्थ की एक-एक प्रति सव सदस्यों के पास जानी चाहिये थी और मिलकर विचार होना चाहिये था। ऐसी अवस्था में विद्वत् परिषद से स्वीकार करना इसे उपसमिति का कार्य मानना चाहिए । इस ग्रन्थ का नाम है "जैन शासन में निश्चय और व्यवहार" । इस लियेइस ग्रन्थ में निश्चय और व्यवहार किस अर्थ में प्रयुक्त होते हैं इसपर ही अपने विचार उन्होंने रखे हैं । उसमें आगम के जो उद्धरण दृष्टिगोचर होते हैं उनका अपने मन की पुष्टि के अर्थ में ही उपयोग किया गया है। जैसे सोनगढ़ में यह कहा जाता रहा है कि निश्चय मोक्षमार्ग ही सच्चा मोक्षमार्ग है, व्यवहार मोक्षमार्ग तो निश्चय मोक्षमार्ग की सिद्धि का निमित्त मात्र है, इसी लिये वह मोक्ष मार्ग नाम पाता है । वही बात प्रवचनसार के इस वचन से भी हम जानते हैं "ततो नान्यद्वर्त्म निर्वाणस्येत्यवधार्यते।" इसी लिये निर्वाण का अन्य मार्ग नहीं है यह निश्चित होता है। मालम पड़ता है कि उन्होंने यह पुस्तक सोनगढ़ के विरुद्ध अपने मत का प्रचार करने के अभिप्राय से ही लिखी है। तभी तो वे कहते हैं कि __ "इससे सोनगढ़ की यह मान्यता निरस्त हो जाती है कि सच्चा मोक्ष मार्ग होने से ही निश्चय मोक्षमार्ग को आगम में यथार्थ, मुख्य, परमार्थ और भूतार्थ आदि नामों से पुकारा गया है तथा
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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