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________________ २१४ दलील को समर्थन करता है, अतः पागम यही मिलता है कि जव मिट्टी स्वयं भीतर से घटरूप परिणमन के सन्मुख होती है। तब दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्न निमित्त मात्र होते हैं । यथा - यतः मृदः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामाभिमुख्य दण्डचक्रपौरुषप्रयत्नादि निमित्तमात्र भवति। .:. .. . . . . . वह पक्ष कहता है कि "निश्चयकारणरूप मिट्टी में घटपर्याय से अव्यवहित पूर्वपर्यायरूप कुशूलपर्याय का विकास हो-जाने पर भी यदि असद्भुत व्यवहारकारणरूप कुम्भकार उस अवसर पर अपना तदनुकूल क्रियाव्यापार रोक देता है तो उस मिट्टी में तब उस घटरूप कार्य की उत्पत्ति भी रुक जाती है, आदि ।" सो समीक्षक का यह कहना बालकों का खेल जैसा प्रतीत होता है, क्योंकि तब यह कहना चाहिये कि उस समय वह मिट्टी भीतर से घट होनेरूप परिणाम के सन्मुख न होने से उसके व्यवहार से अनुकूल कालप्रत्यात्तिवश व्यवहार से कुम्भकार का योग और विकल्परूप योग नहीं मिलता है। प्रागम भी इसी बात को स्वीकार करता है, क्योंकि समर्थ उपादान के कार्य और उसके निमित्त में समव्याप्ति होती है। अविनाभाव सम्बन्ध दो प्रकार का होता है - क्रम अविनाभाव सम्बन्ध और दूसरा समव्याप्तिरूप अविनाभाव सम्बन्ध । उपादान-उपादेयंभाव में क्रम अविनाभाव सम्बन्ध होता है । देखो परीक्षामुख सूत्र अ.२ । निमित्त नैमित्तिक भाव में सम व्याप्तिरूप अविनाभावं सम्बन्ध होता है। देखो समयसार गाथा ८४ की प्रात्मख्याति टीका या कर्म शास्त्र का उदय प्रकरण । यहां अपने अन्तिम पेज में जो निश्चय उपादान की बात कही है, वही भेदविवक्षा में सद्भूत व्यवहार कारण माना गया है। यही इस समीक्षा का समाधान है। आशा है इस समाधान पर व्याकरणाचार्यश्री अवश्य ध्यान देने की कृपा करेंगे। समर्थ व्यवहारनय का यह अर्थ नहीं है कि उसके आधार पर प्रागम में स्वीकृत किसी भी समर्थ उपादान के खण्डन के लिए कल्पित निमित्त को किसी भी कार्य का मुख्य कर्ता मानकर उसका (समर्थ उपादान का) निरसन नहीं किया जाय। घी के निमित्त से यदि घडे को घी का घडा कहा जाता है तो जैसे घडा घी का नहीं हो जाता उसी प्रकार यदि विवक्षित कर्म के उदय आदि से जीव की विवक्षित पर्याय को औदायिक आदि कहा जाता है तो वह पर्याय कर्मकृत नहीं हो जाता । अन्यथा द्रव्य का जो यह लक्षण उपलब्ध होता है-"उत्पाद व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । सद्रव्यलक्षणम्" वह नहीं बन सकता । लौकिक व्यवहार को चलाने के लिये आगम में वाह्य निमित्त को स्वीकार करके ज्ञानमार्ग पर आरुढ होने के लिए उसका निषेध ही किया गया है । पर कोई वाह्य निमित्त को स्वीकार करके उसके आधार पर प्रमाणष्टि से स्वीकृत समर्थ उपादान का निषेध कर असमर्थ उपादान के आधार पर कार्य सिद्धि करके इसे ही अनेकान्त मानकर सामान्य जनता को पथभ्रष्ट करके रखना चाहता है तो उसे हमारी बात तो छोड़िये, तीर्थकर सर्वज्ञ भी रोकने में असमर्थ हैं। इससे अधिक हम और क्या-लिखाइति शमन
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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