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________________ 8146 २१३ - किन्तु आगम पर मेरे दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आगम में कहीं भी द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा उपादानभाव को स्वीकार कर कार्य कारणभाव रूप उपादान-उपादेय भाव की प्रतिष्ठा नहीं की गई है । उसके लिए भ्रष्टसहस्री पृ. १०१ पर दृष्टिपात करके इस वचन को ध्यान में लेना चाहिये । यथा प्रागभावप्रध्वंसयो रूपादानोपादेयरूपतोपगमात्प्रागभावोपादानेव लाभात् । 'प्रध्वंसस्यात्म प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव में क्रम से उपादान और उपादेय रूपता स्वीकार की गई है, इसलिए उपादान के उपमर्दन द्वारा प्रध्वंसाभाव की प्राप्ति होती है यह निश्चित होता है ।"इसी बात को और भी स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हुए तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. १५१ में लिखा है - : 'क्रमभुवोः पर्याययोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरुपादानोपादेयत्ववचनात् । न चैवंविध कार्यकारणभावः सिद्धान्तविरुद्धः । क्रम से होनेवाली दो पर्यायों में एकद्रव्यप्रत्यासत्ति होने से उपादान- उपादेयपना कहा गया है । और इसप्रकार का कार्यकारण भाव सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है । वस्तुत: कार्यकारणभाव रूप से उपादान - उपादेय भाव की सम्यग्व्यवस्था बनाने के अभिप्राय से यही स्वीकार कर लिया गया है कि समर्थ उपादान के स्वीकार करने पर तो वह समर्थ उपादान विवक्षित कार्य को ही नियम से उत्पन्न करता है, जिसका वह उपादान होता है ! देखो तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. १५१(१) इसमें उभयनय के विषय का समावेश हो जाता है । प्रमाण से भी यही सिद्ध होता है 1. -:: इसप्रकार इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि समीक्षक ने उपादान की जिस व्यवस्था को स्वीकार कर अपने जिस कल्पित अभिप्राय की पुष्टि करनी चाही है, वह अभिप्राय आगमंत्राह्य होने से स्वीकार करने योग्य नहीं माना जा सकता। उसने जयपुर ( खानिया) तत्वचर्चा की जो समीक्षा लिखी है, वह सब ऐसे ही कल्पित अभिप्रायों से भरी हुई है, जो केवल भोले लोगों को भ्रम में डालने का एक झूठा प्रयत्न ही कहा जायगा । 2. दूसरे जो भी बाह्य निमित्त होता है, वह भी द्रव्यपर्याय रूप ही होता है । कुम्भकार जब विवक्षित विकल्प और क्रिया की भूमिका में होता है, तभी वह घट पर्याय ( कार्य ) का निमित्त कहा जाता है, अन्यथा नहीं । उसी प्रकार समर्थ उपादान न केवल सामान्य द्रव्य होता है और न केवल द्रव्यनिरपेक्ष पर्याय ही समर्थ उपादान होता है, अतः श्रागम में अनेकान्त को दृष्टि में रखकर जो जैनदर्शन भी यही है । समर्थ उपादान का लक्षरण लिखा है, वही ठीक है । (५) स. पू. ३०१ 'समीक्षक ने जो समर्थ उपादान के खण्डन में अपनी दी है, वह केवल समीक्षक का कथन मात्र ही प्रतीत होता है, क्योंकि यदि श्रागम में समर्थन में अर्थात् समर्थ उपादान के विरोध में ऐसा वचन दृष्टिगोचर होता तो आगम हो स्वयं उस कल्पित दलील कहीं भी उसके :
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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