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________________ १६६ कथन व्यवहारधर्म से ही संवन्ध रखता है, मात्र पुण्य से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । तथापि आगम में मात्र शुभभावों को भी वीतरागता और मोक्ष प्राप्ति का प्रदयारूप अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिपूर्वक शुभ प्रवृत्ति होती है, वह यदि सम्यग्दृष्टि की परिणति है तो वह व्यवहारधर्मरूप कही जाती है । यतः वह शुभ प्रवृत्ति होती है, अतः वह प्रास्रव और वन्ध का ही हेतु मानी गई है, यह श्रदयिकभाव है | यहाँ हमने क्रियावती और भाववती शक्ति का भेद नहीं करके विवेचन किया है, क्योंकि भाव तो क्रिया के होने में निमित्त मात्र है । यह क्रिया भी कहीं-कहीं भाव के होने में निमित्तमात्र होती है । दया और श्रदया ये जीव के परिणाम हैं, क्रिया नहीं ! इनके निमित्त से किया श्रवश्यं होती है, जिसमें शुभमशुभ का व्यवहार कर लिया जाता है । वह व्यवहार उपचरित ही । देखो सवार्थसिद्धि श्र. ६, पृ. ४१ यहाँ उस पक्ष ने जो दया को उपशम, क्षय और क्षयोपशमपूर्वक लिखा है, सो उसका ऐसा लिखना इसलिए संगत नहीं है; क्योंकि एक ओर तो वह उसे व्यवहारधर्मरूप शुभभाव कहता है, जो चारित्रमोहनीय के उदय से होता है और दूसरी ओर वह उसे श्रपशमिकं श्रादि रूप भी कहता है, यह परस्पर विरोधी कथन है, जिसे आगम के अनुसार स्वीकार नहीं किया जा सकता । श्रागम में सर्वत्र शुभ और 'शुद्ध भावों में यही भेद है कि शुभभाव चारित्रमोहनीय कर्म के उदय को निमित्तकर सम्यग्दृष्टि के होता है और शुभभाव कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम को निमित्त कर चौथे गुणस्थान से होता है । चतुर्थ दौर की प्रतिशंका ४ का समाधान शंका- व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं ? धर्म का लक्षण - " वस्तुस्वभाव का नाम धर्म है, उस स्वभावरूप धर्म की प्राप्ति स्वयं श्रात्माश्रित रत्नत्रय की प्राप्ति से ही होती है, इसलिए उसे प्रभेद विवक्षा में निश्चयवमं भी कहते हैं । द्रव्यानुयोग के एक भेद अध्यात्म में इस विषय का गहराई से विचार किया गया है। करणानुयोग और चरणानुयोग शास्त्र की प्ररूपणा का आधार भिन्न है । करणानुयोग में कर्म को निमित्तकर जीव की विविध श्रवस्थानों का विवेचन परंपरया हेतु बतलाया गया है तथा व्यवहार धर्मरूप शुभ भावों को निश्चयधर्मरूप वीतरागता का और मोक्षप्राप्ति का हेतु बतलाया है" श्रादि यह उसका कहना है । आगम में शुभभाव रूप व्यवहारधर्म को मोक्षप्राप्ति का परंपर्या हेतु बतलाया है, उसका अभिप्राय इतना ही है कि जो सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहारधर्मरूप प्रवृति करता है, उसके सम्यग्दर्शन रूप स्वभावभाव को निमित्त कर संवर-निर्जरा होती है और उसके साथ रहनेवाला व्यवहारधर्म यद्यपि प्रस्रव और बन्व का ही कारण है, फिर भी सहचर संबंधवश या स्वभावभाव का निमित्त होने से वह परम्पर्या मोक्ष का हेतु है, उसमें यह उपचार कर लिया जाता है । रहा मिथ्यादृष्टि का पुण्य भाव, सो वह तो मात्र प्रस्रव और बन्ध का ही कारण है, इसमें संदेह नहीं ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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