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________________ १९४ उसका व्याप्य है, 'क्योंकि स्वाभाविक परिणति का भी स्वभावभूत धर्म में अन्तर्भाव हो जाता है। शुभोपयोग के विषय में प्रवचनसार गा. ६६ में लिखा है- जो देव, गुरू और यति की पूजा में, दान में, सुशील में और उपवादसादि में लीन है, वह आत्मा. शुभोपयोगी होता है । व्यवहारधर्म भी इसी का नाम है । यहां अशुद्धोपयोग दो प्रकार का है, इसका खुलासा करते हुए प्रवचनसार गा. १५६ को तत्त्वप्रदीपिका टीका में लिखा है - उपयोगोहि जीवस्य परद्रव्यसंयोगकारणमशुद्धः । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरागवशात् शुभाशुभत्वेनोपात्त विध्यः पुण्यंपांपत्वेनोपात्तव विध्यस्य परद्रव्यस्य संयोगकारणत्वेत निर्वर्तयति । यद्यतु द्विविधस्याप्यस्याशुद्धस्याभावः क्रियते तदा खलूपयोगः शुद्ध एवावतिष्ठते। . . . . . . . . इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गा. १५५ की तत्त्वप्रदीपिका टीका में लिखा है - अथायमुपयोगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धो निरूपरागः अशुद्ध सोपरागः स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन व विध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च । स. पृ. २६८ में समीक्षक लिखता है कि "सप्तम गुणस्थान की सातिशयाप्रमत्त दशा से लेकर दशमगुणस्थानवी जीव के उपयोग को शुद्धोपयोग न कहकर शुद्धोपयोग की भूमिका कहने में हेतु यह है कि इन गुणस्थानों में भी जीव प्रतिसमय यथायोग्य कर्मों का आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकार का बन्ध करता है, जो बंन्ध शुभोपयांग से प्रभावित जीव की क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप मनोयोग, वचनयोग और काययोंग के प्रांधार पर ही संभव है । इस तरह दशम गुणस्थान तक के जीवों में शुभोपयोग की सत्ता को स्वीकार करना अनिवार्य है। फ़लतः अशुभोपयोग का सद्भाव रहते हुए वहां शुद्धोपयोग का सद्भाव होना असंभव ही जानना चाहिये, क्योंकि जीव में दो उपयोग एक साथ कदापि नहीं होते हैं।" . . यह समीक्षक का कहना है। इससे मालूम पड़ता है कि वह सविकल्प धर्मध्यानरूप शुभोपयोग को दसवें गुणस्थान तक स्वीकार करता है, जबकि सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक से ज्ञात होता है कि श्रेणिपर आरोहण करने के पूर्वतक धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में शुक्लध्यान होता है। यथा - ... . श्रेण्यारोहणात् प्राग् धर्मध्यानं श्रेण्योः शुक्लध्यानमिति व्याख्यास्यामः । इससे मालूम पड़ता हैं कि शुद्धोपयोग का सद्भाव पाठवें गुणस्थान से नियम से पाया जाता है, इसके पूर्व बहुलता से शुभोपयोग होता है और कदाचित् चौथे गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान तक स्वानुभूति भी होती है (जो एकप्रकार से शुद्धोपयोगरूप ही मानी गई है।) इतनी विशेषता है कि सातवें मुणस्थान में शुद्धोपयोग ही होता है । नयचक्र में धर्मध्यान के दो भेद दृष्टिगोचर होते हैं - एक विकल्प धर्मध्यान और दूसरा निर्विकल्प धर्मध्यान । सविकल्प धर्मध्यान का नाम ही शुभोपयोग
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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