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________________ १६३ समीक्षक ने त. च. पू. १०१ का उल्लेख करके जो लिखा है, सो उसका समाधान पहले ही - कर आये हैं । पुनः उस विषय में लिखना पुनरुक्ति मात्र है । - समीक्षक ने त. 'च. पृ. १०३ पर जो यह लिखा है कि "वह पक्ष केवल पुण्यभावरूप जीवदया को ही नहीं, अपितु व्यवहारघर्मरूप जीवदया के अंशभूत पुण्यमय दयामय प्रवृत्ति को भी बन्ध काही कारण मानता है ।" सो उसके इस कथन से ऐसा लगता है कि वह शुद्ध भाव को भी व्यवहारधर्मरूप मानता है ।" जबकि शुद्धभाव अभेद विवक्षा में परनिरपेक्ष स्वयं आत्मा ही है । पर्यायार्थिकनय की विवक्षा में भी निश्चय पर्यायरूप ही होता है, व्यवहार धर्मरूप नहीं । यहां इतना विशेष कहना है कि समीक्षक व्यवहारधर्म को प्रासव-बन्ध का कारण मान करके भी संवर-निर्जरा का भी कारण मानता है; किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। जहां भी प्रवृत्ति प्रौर- निवृत्तिः इन दोनों को भागम में एक शब्द द्वारा कहा है, वहां उसका व्यवहारधर्म ऐसा विशेष नाम नहीं रखकर सामान्य शब्द द्वारा ही उसका बोध कराया गया है । इसके लिये तत्वार्थसूत्र प्र. - E सु.–२ प्रमाणरूप में उपस्थित किया जा सकता है । वह सूत्र इसप्रकार है' स. गुप्तिसमितिधर्मानु क्षापरीषहजयचारित्रेः । C - व्यवहारधर्म यह शब्द पराश्रित धर्म को ही सूचित करता है, 'जब कि उक्त सूत्र में श्राया हुआ प्रत्येक शब्द न तो पराश्रित धर्म को सूचित करता है और न ही केवल स्वाश्रित धर्म को ही सूचित करता है । समिति आदि में प्रवृत्तिरूप जितना अंश है, वह आस्रव-बन्ध का कारण हैं और निवृत्तिरूप जितना अंश है, वह संवर-निर्जरा का कारण है । समिति प्रादिरूप शब्द प्रयोग ऐसा है, जो सामान्य अर्थ का बोधक है ।-त. च. पू. ११७ से १२० तक हमने विविध प्रमाणों के आधार से जितना भी विवेचन किया है, उससे समीक्षक के कथन का समर्थन न होकर हमारे हों कथन का समर्थन होता है, क्योंकि उक्त कथन से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि व्यवहारधर्म अर्थात् पराश्रित धर्म एकमात्र श्रास्रव - वन्ध काही कारण है और निश्चयधर्म एकमात्र संवर - निर्जरा का ही कारण है । को व्यवहारधर्म कहना, यह मात्र समीक्षक द्वारा अपने अभिप्राय की पुष्टि के ही है । श्रखण्ड मिश्रित भाव लिये मार्ग निकालना . (१४) हमने त. च. पृ. १२० पर यह लिखा था कि चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुरणस्थान तक आत्मानुभूति होती ही नहीं, यह मानना श्रागम-विरूद्ध है । इसपर समीक्षक का कहना है कि "अशुभोपयोग अधर्म सापेक्ष है तथा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग दोनों धर्मसापेक्ष हैं ।" सो पूर्वपक्ष का ऐसा लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रागम में अशुद्धोपयोग अशुभोपयोग और शुभोपयोग के भेद से दो प्रकार का माना गया है ! · उनमें से शुभोपयोग या शुभप्रवृत्ति का नाम ही व्यवहारधर्म है । शुद्धोपयोग और धर्म इन दोनों में व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है, धर्म व्यापक है और शुद्धोपयोग T ' ·
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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