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________________ [ १३ हम यहीं प्रस्तुत कर श्राये हैं। रही इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और अनुभव की बात सो संशयज्ञान, विपर्यय ज्ञान और अनध्यवसायज्ञान भी तो ज्ञान ही हैं । जैसे मृगमरीचिका में मृग को पानी का प्रभाव होने से वह दोड़ता फिरता है, उसे पानी के दर्शन नहीं होते, वैसे ही इस ज्ञान को मृगमरीचिका के समान मानकर आगम प्रमाण को ही प्रमाण मानना चाहिये । ऐसा हम क्यों लिखते हैं ? क्या इससे यह आभास नहीं होता कि आप अपने को तत्वज्ञ मानते हो तो इस सम्बन्ध में हमारा यही कहना है कि हमें अपनी अपेक्षा व्याकरणाचार्य को तत्वज्ञ मानने में कोई आपत्ति नहीं, पर उन्हें नित्य द्रव्य को सम्यक् उपादान स्वीकार करने में प्रागम प्रमाण उपस्थित कर इन्द्रिय प्रत्यक्ष आदि ज्ञान को प्रमाण मानना चाहिये था । आगम प्रमारण तो दिया नहीं और उसे न देकर मात्र उसका बहाना कर इन्द्रिय प्रत्यक्ष शांदि को प्रमाण मानना कैसे सगत कहा जा सकता है ? एक प्रमाण तो उन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड का देकर स्वयं उसके आधार पर अनेकान्तस्वरूप द्रव्यपर्यायरूप वस्तु को उपादान मान लिया है । किन्तु पूरी समीक्षा उन्होंने नित्य- द्रव्य को उपादान मानकर लिखी है । इससे उन पर यदि हम ऐसा आरोप करें कि वे ऐसा लिखकर नैयायिक दर्शन के अनुसार ईश्वरवाद का समर्थन कर रहे हैं तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । यह वस्तुस्थिति है फिर भी हमारा काम है कि उनके सामने विचार के लिये विविध आगमों के अनेक प्रमाण उपस्थित करे । सम्भव है कि इससे उनका विचार बदल जाये और वे उन आगम प्रमारणों के प्रकाश में जैनदर्शन के अनुसार ही लिखने लगें । वे अच्छे लेखक हैं, विचारक भी हैं, व्याकरण शास्त्र का उन्होंने पूरी तरह से अभ्यास भी किया है । जब वे जैनदर्शन को अपने लेखन का विषय बनाकर निश्चयन-यव्यवहारनय और उनके भेद-प्रभेदों को ध्यान में रखकर लिखेंगे तो हम उनका श्रौर उनके द्वारा लिखे गये लिखान का स्वागत ही करेंगे । अब यहाँ उनके सामने हम उपादान के विषय में और भी प्रमाण उपस्थित कर देना चाहते हैं । • दो प्रमाण तो हम पहले ही उपस्थित कर आये हैं । सम्यक् उपादान के विषय में अन्य प्रमारण उपस्थित करते हुये स्वामी समन्तभद्राचार्य अपनी आप्तमीमांसा में लिखते हैं कार्योत्पाद: क्षमोहेतोनियमात्लक्षणात् पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ - हेतु का नियम होने से क्षय (व्यय) कार्य का उत्पाद है । किन्तु वे दोनों लक्षण की अपेक्षा भिन्न-भिन्न 1 जाति आदि के अवस्थान से वे दोनों आकाशफूल के संमान सर्वथा श्रनपेक्ष नहीं हैं । इसकी प्रष्टसहस्री टीका में इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है : उपादान का पूर्वाकार से ( पूर्व पर्याय से) क्षय (व्यय) होना कार्य का उत्पाद ही क्योंकि उनमें हेतु का (एक हेतु का) नियम है । परन्तु जो उससे भिन्न है अर्थात् उत्पाद के लक्षण से श्रन्य है उसमें हेतु का नियम नहीं देखा जाता । जैसे अनुपादान के क्षय और अनुपादान के उत्पाद में ये हेतु का नियम नहीं देखा जाता । इसलिये उपादान का क्षय ही उपादेय का उत्पाद है । और यह हेतु प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि कार्य के जन्म और कारण के विनाश में एक हेतुपने का नियम अच्छी तरह से प्रतीत होता है । जो बौद्ध यह मानते हैं कि उत्पाद सहेतुक होता है प्रौर विनाश निर्हेतुक होता है, उनके उस मत का इससे निराश हो जाता है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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