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________________ १२] के अभाव स्वभाव है इसलिये प्रागभाव को माना जाता है, यदि ऐसा है तो इसप्रकार कार्य से अव्यवहित पूर्व पर्याय से रहित पूर्वोत्तर सम्पूर्ण पर्यायों में कार्यस्वभावता कैसे नहीं प्राप्त होती ? इस लिए प्रागभाव अभाव स्वभाव की अपेक्षा अविशेष है। ऐसा होने पर भी कोई एक पर्याय ही कार्यरूप से इष्ट है, इतर परिणाम नहीं ऐसा मानना भी अभिनिवेषमात्र है। सम्भवतः तुम्हारा (जनों का) यह कहना हो कि कार्य से पहले अव्यवहित पूर्वपर्याय कार्य का प्रागभाव है और उसी कार्य का प्रध्वंस ही घटादि कार्य है। परन्तु इतरेतराभाव कार्य नहीं है जिससे कि तत्पूर्वोत्तर सकल पर्यायों में घटपना प्राप्त होवें और पूर्वोत्तर सकल पर्यायों में प्रागभाव और प्रध्वंसरूपता है, क्योंकि उन पूर्वोत्तर पर्यायों में इतरेतराभाव स्वीकार किया जाता ह सो यह भी सुगत मत के अनुसार स्याद्वादियों की मान्यता प्राप्त होती है, क्योंकि इससे स्वमत का विरोध होता है । प्रागभाव अनादि है यह सुगत मत है, किन्तु ऐसा मानना पूर्व अनन्तर पर्याय मात्र घट का प्रागभाव है इस बात के विरुद्ध पड़ता है। द्रव्याथिकनय से प्रागभाव अनादि है तो क्या इस समय मिट्टी आदि द्रव्य प्रागभाव है ? यदि ऐसा माना जाय तो प्रागभाव की अभावरूपता घट की कैसी बनेगी, क्योंकि द्रव्य का प्रभाव होना असम्भव है । इसलिए कभी भी घट की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । यदि पुनः पूर्व पर्याय की सभी अनादि सन्ततियां घट का प्रागभाव अनादि हैं ऐसा मत हो तो उस समय भी पूर्व अनन्तर पर्याय की निवृत्ति के समान उससे पूर्व की पर्याय की निवृत्ति होने पर घट की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है । और ऐसा होने पर घट का अनादिपना प्राप्त होता है, क्योंकि पूर्वपर्याय की निवृत्तिरूप सन्तान भी अनादि है। यदि कहा जाय कि घट के अव्यवहित पूर्व सम्बन्धी पर्याय घट का प्रागभाव नहीं है, न मिट्टी आदि द्रव्यमात्र प्रागभाव है और न घट से पूर्व की समस्त पर्याय सन्तति ही घट का प्रागभाव है । तो क्या प्रागभाव है ? यह पूछे जाने पर प्राचार्यदेव उत्तर देते हैं कि द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु प्रागभाव है । और वह कथंचित् अनादि है तथा कथंचित् सादि है यह स्याद्वाद दर्शन है। इसीलिए स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपादान और उपादेय का यह लक्षण उपलब्ध होता है पुन्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे वबं । उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्ज हवे णियमा । अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य उपादान है और अव्यवहित उत्तर पर्याय युक्त द्रव्य नियम से कार्य है। कारण-कार्य के विषय में यह वस्तुस्थिति है । इसलिए समीक्षक महानुभाव व्याकरणाचायं ने नित्यपने की अपेक्षा नित्य द्रव्य को उपादान कहा है और उस आधार पर जो द्रव्य को अनेक योग्यता वाला मानकर निमित्तों के बल से प्रागे-पीछे जब जैसे निमित्त मिलते हैं उनके अनुसार कार्य होने का विधान किया है, वह आगम न होकर मात्र उनकी मान्यता ही कही जा सकती है । वे अनेक स्थानों पर लिखते हैं कि आगम, इन्द्रियप्रत्यक्ष, तर्क और अनुभव से इसका समर्थन होता है । सो आगम तो
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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