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________________ १७७ . . पालापपद्धति के वचन में जो "मुख्याभावे" पद है. सो वह वहां मुख्य को गौण करने के अर्थ में है। कार्य में मुख्य का कभी भी अभाव नहीं होता है। यदि मुख्य · बालक का अभाव मान लिया जाय तो सिंह का उपचार किसमें करेंगे ? हां वहां सिंहरूप निमित्त का प्रभाव अवश्य पाया जाता है, परन्तु सिंह के क्रौर्य शौर्य गुण का स्मरण कर बालक को सिंह कहा जाता है। अतएव समीक्षक आलापपद्धति के उक्त वचन का जो अर्थ करता है वह योग्य नहीं है। कथन १५ (स. पृ. २३४). का समाधान : — समीक्षक ने जीवित शरीर की क्रिया के दो अर्थ इस समीक्षा में ही किये हैं और इनमें से एक अर्थ के अनुसार वह यह तो मान लेता है कि त च. पृ. ९१ में प्रवचनसार के उद्धरण और मणिमाला के उदाहरण का जो समाधान किया गया है, वह सर्वार्थसिद्धि के "वियोजयति चासुभिः" इत्यादि उल्लेख के अनुसार एक अर्थ को ध्यान में रखकर ही किया गया है। किन्तु हमारी शंका शरीर के सहयोग से होने वाली जीव की क्रिया को जीवित शरीर की क्रिया मानकर प्रकृत में विचार करना था। सो यह बात तो हम मान लेते हैं कि जीव के सहयोग से होने वाली शरीर की क्रिया तो किसी भी अवस्था में धर्म-अधर्म का कारण नहीं होती । अव रह जाती है शरीर के सहयोग से होनेवाली जीव की क्रिया, सो शरीर के सहयोग से होनेवाली जीव की क्रिया दो तरह से होती है - एक तो अन्तरंग मानसिक परिणाम की प्रेरणा से होती है और दूसरी अन्तरंग मानसिक प्रेरणा न होने पर भी होती है। इनमें से जो शरीर के सहयोग से होनेवाली जीव की क्रिया अन्तरंग मानसिक परिणाम की प्रेरणा से होती है, वह तो धर्म-अधर्म का कारण होती ही है। लेकिन जो • शरीर के सहयोग से होनेवाली जीव की क्रिया अन्तरंग मानसिक परिणाम के बिना ही होती है वह भी धर्म-अधर्म में कारण होती है । इसे लक्ष्य में रखकर ही त. च. पृ. ५३ पर अपना कथन किया है। इसतरह उत्तरपक्ष ने उसकी आलोचना में जो कुछ उक्त ' अनुच्छेदों में लिखा है वह अप्रासंगिक और निरर्थक है अपनी इस समीक्षा में यह समीक्षक का कथन है। इसमें उसने जीवित शरीर की क्रिया पद से उसका अर्थ शरीर के निमित्त से होनेवाली जीव की क्रिया किया है। सो इसका सीधा अर्थ होता है कि संसारी जीव जव धर्म या अधर्मरूप परिणत होता है, तब वह शरीर उसमें असद्भूत व्यवहार से निमित्त होता है। यदि द्वितीय दौर में वह पक्ष ही इस बात को स्वीकार कर लेता तो यह विवाद कभी का समाप्त हो गया होता। अब जाकर कोई गति न देखकर इस समीक्षा में वह इस बात को. दूसरे शब्दों में स्वीकार करता है इसकी हमें प्रसन्नता है। कहावत भी है कि सुबह का भूला शाम को घर आ जाय तो वह भूला हुआ नहीं कहलाता। सीधी सी बात यह है कि धर्म अधर्म का मुख्य कर्ता आत्मा ही हाता है, अन्य परद्रव्य तो उसमें निमित्तमात्र होता है। समीक्षक ने जो मानसिक परिणाम का उल्लेख किया सो वह स्वयं जीवरूप है या पुद्गल रूप ? ऐसा प्रश्न होने पर जीव की क्रिया कहने से उसे जीवरूप ही मानना पड़ता है। और इस दृष्टि से देखने पर
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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