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________________ १७६ चाहता, और इसलिये वह निश्चयनय से की गई कथनी के विरोध में समाज को उखाड़ने से नहीं हिचकिचाता, इसलिए मात्र निश्चयकथनी को सिद्धि श्रागम ग्रन्थों में कैसे की गई है यह प्रसिद्ध करने के लिये हो हमने ब्र. लाडमलजी के श्राह्वान पर श्रामन्त्रण स्वीकार किया था । इसलिए समीक्षक को उस समय किये गये लिखान की प्रोर देखना चाहिये। विरोध में कुछ भी लिखते रहने से कोई लाभ होने वाला नहीं । इतना वह निश्चय माने कि हम व्यवहार कवनी को भी जानते हैं और परमार्थ कथनी को भी जानते हैं । इसलिए हम श्रसत् प्रारोपों द्वारा परमार्थ कथनी को अपने जीवन भर मटियामेट नहीं होने देंगे। विशेष क्या निवेदन करें । कथन नं. १४ स. पू. २३३ का समाधान :---- समीक्षक ने हमारे द्वारा दिए गए "नियत वाह्य सामग्री नियत श्राभ्यंतर सामग्री की सूचक होने से व्यवहारनंय से आगम में ऐसा कथन किया गया है । इस उत्तर को सीधे मार्ग से न पकड़कर घुमावदार मार्ग से पकड़ना चाहा है ।" अर्थात् वह बाह्य सामग्री को जो श्राभ्यंतर सामग्री का सूचक मानते हैं सो इससे तो कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्री को उसकी मान्य नकिंचित्करता खंडित हो जाती है । लिखा है सो यह केवल समीक्षक की कल्पना मात्र है। समीक्षक ऐसा मानता कहां है जिससे हमारे कथन की हानि मानी जाय । पहले तो उसे 'भूतार्थ रूप से सहायता करता है' इसका अर्थ 'सूचन करता है,' इतना स्वीकार कर लेना चाहिये, उसके बाद ही हमारे ऊपर उक्त दोषारोपण करना ठीक ठहराया जा सकता है । " दूसरे हमारा तो यह कहना है कि वाह्य निमित्त परमार्थ से उपादान का कार्य नहीं कर सकता, इसलिए श्रकिंचित्कर है । वह उपादान के कार्य में व्यवहार से सूचक है । इसका समीक्षक ने कहां निपेध किया ? समीक्षक ने जो श्राधार की पृच्छा की है सो इसका उत्तर हम--- कर्त्राद्या वस्तुनो भिन्नाः येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददृक् ॥ अनगारधर्मामृत के इस कथन के द्वारा बार-बार दे याये हैं। इसके द्वारा यही तो कहा गया है कि वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु को कर्ता आदि रूप कथन निश्चय को सिद्धि के लिए किया जाता है | आदि समीक्षक को समझना चाहिये कि यह आधार ही तो है। रही हमारी बात सो समीक्षक मात्र आरोप करना जानता है । हमने क्या लिखा है और क्या लिख रहे हैं इस ओर वह यदि ध्यान नहीं देना चाहता तो इसके लिए हम क्या करें । "व्यवहार से ऐसा कथन किया जाता है ।" हमारे इस कथन को यदि वह ठीक मान लेता. है तो व्यवहारनय का कथन. विकल्प मात्र होने से उसे यह भी मान लेना चाहिये कि "समर्थ उपादान से होने वाले कार्य में बाह्य सामग्री सहायक होती है" ऐसा कहना विकल्प मात्र है. परमार्थ नहीं ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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