SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० ] ये कतिपयं वक्तव्य हैं जिन्हें व्याकरणाचार्य जी ने अपनी समीक्षा में प्रस्तुत किये हैं । इनसे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं - एक तो उपादान- उपादेय के सम्बन्ध में और दूसरी निमित्त नैमित्तिक के सम्बन्ध । ये दो ही विवाद के मुद्दे पूर्व पक्ष ने बना दिये थे, क्योंकि उनकी ओर से रखी गयी शंकाएँ प्रायः इसी दायरे की थी । } यहाँ सबसे पहले उपादान - उपादेयभाव के सम्बन्ध में अनेकान्तस्वरूप जैन दर्शन की स्याद्वाद पद्धति को ध्यान में रखकर उक्त वचनों का समुच्चय रूप में समाधान करेंगे । जैन दर्शन में प्रमाण और नयदृष्टि मुख्य है । प्रमाण तो ज्ञानमात्र है, श्रनेकान्तस्वरूप जैसी वस्तु है उसे वह उसी प्रकार से जानता है । वह श्रपेक्षा को ध्यान में रखकर विवेचन नहीं करता । इसलिये अपेक्षा से विवेचन करना नयदृष्टि का काम है। नयचक्र में कहा भी है जं णारणीण वियप्पं वत्युत्रंशसंग हरणं । तं इह नयं पउच्चइ णारणी पूरण तेणरणारोहि ॥ वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाला जो ज्ञानी का विकल्प होता है वह नय कहलाता है । उस ज्ञान से यह ज्ञानी है । 7 इसलिये नयविशेष का उल्लेख न कर के जो प्रश्न नयदृष्टि से किया जायगा उसका उत्तर नयदृष्टि से ही दिया जायगा । भले ही पूर्वपक्ष ने नयविशेष का उल्लेख न कर मन में नयदृष्टि को ध्यान में रखे बिना या नय विशेष का उल्लेख किये बिना प्रश्न किया गया हो अतएव पूर्वपक्ष के प्रथम प्रश्न उत्तर में हमारी ओर से जो नयदृष्टि से उत्तर दिया गया था वह यथार्थ था। वहां नयविपयता का उल्लेख करना अनावश्यक कैसे हो गया ? ऐसा मालूम पड़ता है कि पूर्वपक्ष नयदृष्टि से दिये गये उत्तर को अपने प्रश्न का उत्तर न माने, तो उससे प्रश्न का उत्तर अनावश्यक नहीं हो जाता। यहां देखना यह चाहिए कि प्रश्न के उत्तर में जो लिखा गया वह समीचीन है या नहीं, क्योंकि जैनदर्शन में अधिकतर विवेचन नयदृष्टि को ध्यान • में रखकर ही किया गया है । भले ही पद-पद पर नयविशेष का उल्लेख न किया गया हो। हमारे पक्ष को तो आश्चर्य इसी बात का है कि यदि श्रापस के मतभेद को मिटाने के सम्बन्ध में चर्चा करनी थी तो निश्चयनय और व्यवहारनय के विषय में चर्चा होनी चाहिए थी, क्योंकि मूलरूप में ये ही आपस में विवाद के विषय बने हुए थे । उनका निर्णय होने पर कर्म के उदय कोचतुतिभ्रमण का कारण किस दृष्टि से कहा गया है यह अपने श्राप फलित हो जाता है । पर निश्चयनय और व्यवहार के विषय में चर्चा न कर ऐसे प्रश्न सामने लाये गये जो सहज ही स्पष्ट हो जाते। इसका अर्थ है कि पूर्वपक्ष स्वयं ही भूल में रहा और समाधान पक्ष को भी ऐसी बातों में 'उलझा दिया जिससे कभी भी विवाद समाप्त न हो सके हमारा पक्ष भी उलझा रहा और आप का पक्ष भी उलझा रहा । हम जानते हैं कि पूर्वपक्ष का जो नेता था वह बहुत "चतुर था। उसकी मनसा ही नहीं थीं कि यह विवाद कभी समाप्त हो । विवाद समाप्त हो सकता था । यदि मूलमुद्दे को सामने रखकर विचार कर लिया जाता और विवाद को समाप्त करने की इच्छा होती । अस्तु 5 व्याकरणाचार्यने उपादान के दो लक्ष्य स्वीकार किये हैं जैसा कि उनके उक्त उद्धरणों से ज्ञात
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy