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________________ (23) "उपर्युक दोनों बातों में से प्रथम वात के सम्बन्ध में विचार करने के उद्देश्य से ही खानिया तत्वचर्चा के अवसर पर दोनों पक्षों की सहमतिपूर्वक उपयुक्त प्रथम प्रश्न उपस्थित किया गया था.। इतना ही नहीं, खानिया तत्वचर्चा के सभी १७ प्रश्न उभयपक्ष की सहमतिपूर्वक ही चर्चा के लिए प्रस्तुत किये गये थे।" (स. पृ. 6) (24) "पूर्व में बतलाया जा चुका है कि प्रकृत प्रश्न को प्रस्तुत करने में पूवपक्ष का आशय इस बात को निर्णीत करने का था कि द्रव्यकर्म का उदय संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में निमित्तरूप से अर्थात् सहायक होने रूप से कार्यकारी होता है या वह वहाँ पर सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है व संसारी आत्मा द्रव्यकर्म के उदय का सहयोग प्राप्त किये विना ही विकारभाव तथा चतुर्गति परिभ्रमण करता रहता है । उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के इस आशय को समझता भी था, अन्यथा वह अपने तृतीय दौर के अनुच्छेद में पूर्वपक्ष के प्रति यह नहीं लिखता कि "एक और तो वह द्रव्यकर्म के उदय को निमित्त रूप से स्वीकार करता है" परन्तु जानते हुए भी उसने प्रथम दौर में प्रश्न का उत्तर न देकर उससे भिन्न नयविषयता और कर्ताकर्म सम्बन्ध की अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा को प्रारम्भ कर दिया ।" (स. पृ. 7) (25) "क्योंकि पूर्वपक्ष जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, विकार की कारणभूत वाह्य सामग्री को उत्तरपक्ष के समान अंयथार्थ कारण ही मानता है ।" (स पृ. 7) (26) "मागम वाक्य का यह अभिप्राय नहीं है कि दो द्रव्यों की मिलकर एक विभावपरि'रणति होती है, अपितु उसका अभिप्राय यही है कि एक वस्तु की विकारी परिणति दूसरी अनुकूल वस्तु का सहयोग मिलने पर ही होती है।" (स.पृ. 8) - (27) "पूर्वपक्ष को मान्य निमित्त की कार्यकारिता ही सिद्ध होती है ।" (स. पृ. 10) (28) "उसमें उनका उद्देश्य उपादानकर्तृत्व और निमित्तकर्तृत्व का प्रकृत में भेद दिखलाते हुए यह प्रकट करने का था कि द्रव्यकर्मोदय संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमण में उपादान कारणभूत संसारी आत्मा को सहायता मात्र करता है, संसारी आत्मा की तरह वह उस कार्यरूप परिणत नहीं होता।" (स. पृ. 12) (29) "प्रेरक निमित्त वे हैं जो अपनी क्रिया द्वारा अन्य द्रव्य के कार्य में निमित्त होते हैं और उदासीन निमित्त वे हैं जो चाहे क्रियावान द्रव्य हो और चाहे प्रक्रियावान द्रव्य हो, परन्तु जो क्रिया के माध्यम से निमित्त न होकर निष्क्रिय द्रव्यों के समान अन्य द्रव्यों के कार्य में निमित्त होते हैं।" (स. पृ. 12) (30) "अनुकूल निमित्तों का सहयोग मिलने पर उपादान की विवक्षित कार्यरूप परिणति होना और जब तक अनुकूल निमित्तों का सहयोग प्राप्त न हो तव तक उसकी (उपादान की) विवक्षित कार्यरूप परिणति न हो सकना यह निमित्तों के साथ कार्यो की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हैं । तथा उपादान की कार्यरूप परिणति के अवसर पर निमित्तों का उपादान को अपना सहयोग प्रदान करना और उपादान जब तक अपनी कार्यरूप परिणित होने की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं करता तब तक उनका (निमित्तों का) अपनी तटस्थ स्थिति में बना रहना यह निमित्तों की कार्य के साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां हैं ।" (स. पृ. 13)
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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