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________________ १६० शुभपरिणामनिर्वृत्तः योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तः योगः अशुभः ।। यह निर्णय आज भी हमारा ऐसा ही बना हुआ है। इस संबन्ध में स. पृ. २१४ में हमारे इस वचन को "यदि वे स्वयं समीचीन होने लगे तो अपने परिणामों के सम्हाल की आवश्यकता ही न रह जाय" उद्धृत कर उसने जो टीका प्रारम्भ कर दी है, सो शोभनीक नहीं है। इसी प्रकार त. च. पृ. ५७ पर हमने जो कुछ लिखा है, उसे भी आगम के अनुसार ही लिखा है। इसलिये वह जो उक्त कथन को अपने कथन से निरस्त मानता है सो वह मानना आगम विरुद्ध ही है। हमारे उस कथन के अन्तिम भाग को तो उसने स्वीकार कर लिया है सो उसने ठीक ही किया है, वास्तव में उस अन्तिम भाग से सम्बद्ध पूरा कथन ठीक है। ___इस शंका में "मोक्ष के साधनभूत स्वभाव सन्मुख हुए परिणामों की सम्शल करने का उपाय क्या है।" इस कथन के अन्त में उसने जो लिखा है सो उसका सीधा सरल उत्तर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की एकता ही है, जिसकी प्राप्ति परावलंबन को गौणकर स्वभाव सन्मुख होने से ही होती है, यह निर्विवाद है। इस विषय में उसकी जो यह मान्यता है कि "द्रव्य मन वचन (मुख) और काय के अवलम्बन पूर्वक होने वाली और जीव की यथायोग्य भाववती और क्रियावती शक्ति के परिणाम स्वरूप शुभाशुभ प्रवृत्तियों से यथाविधि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूप में निर्वृत्ति प्राप्त करना ही मोक्ष के साधनभूत स्वभाव सन्मुख हुए परिणामों की सम्हाल करने का उपाय है," सो उसका ऐसा कहना आगम के अनुसार यथार्थ नहीं है। क्योंकि शुभाशुभ परिणामों से न तो तीन गुप्तियों की ही प्राप्ति होती है और न ही प्रात्मा स्वभाव सन्मुख होने के योग्य होता है। कारण कि उपयोग में जहां शुभाशुभ परिणाम बने रहते हैं, वहां स्वभावसन्मुख होना बनता ही नहीं है। कथन ४ (स. पू. २१५) का समाधान : ___ इस कथन में समीक्षक ने त. च. पृ. ५७ पर हमारे द्वारा जो नाटक समयसार का प्रमाण दिया है उसे उसने प्रकरण के अनुसार निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लिया है, यह योग्य ही किया है। कथन ५ (स.पृ. २१५) का समाधान : वह अपनी समीक्षा के नाम से कथन नं. ४ में जो यह लिखता है कि "प्रकृत में शरीर के सहयोग से होने वाली जीविका क्रिया को ही पूर्वपक्ष जीवित शरीर की क्रिया मानता है, जीव के सहयोग से होने वाली शरीर की क्रिया को नहीं।" सो इस शंका का समाधान यह है कि जीवित शरीर की क्रिया जब परमार्थ से होती ही नहीं, क्योंकि शरीर जड़ है, उसका उपादान स्वयं शरीर . ही है, संसारी आत्मा उसमें निमित्त भले ही रहे, इतने मात्र से वह जीवित शरीर की क्रिया नहीं कही जा सकेगी। यदि निमित्त की अपेक्षा कथन भी करेंगे तो यही कहा जायेगा कि संसारी जीव. के निमित्त से हुई शरीर की क्रिया। न तो उसे समीक्षक के अनुसार जीवित शरीर की क्रिया कहा जायेगा और न ही जीव के सहयोग से होने वाली "जीवित शरीर की क्रिया" ही कहा जाएगा। अतः इस कथन में उसने जो कुछ भी लिखा है, वह यथार्थ नहीं है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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