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________________ १५६ को प्रतिशंका २ और प्रतिशंका ३ में भी स्पष्ट नहीं किया। इतना अवश्य है कि जब समीक्षक ने इसे समज्ञा तव जीवित शरीर की क्रिया को पूर्वोक्त विशेपण मानकर स्पष्ट करना चाहा जो कि भ्रामक शब्दों का जाल मात्र है। हम शरीर के सहयोग से (निमित्त से) होनेवाली जीव की क्रिया को जीव के सहयोग से होने वाली शरीर की क्रिया. नहीं मानते हैं, क्योंकि हम तो जीव की परिस्पन्दरूप क्रिया को ही जीवकी मानते हैं और शरीर की क्रिया को शरीर की ही मानते हैं । इन दोनों क्रियाओं के होने में निमित्त कौन है, यह प्रश्न अलग है। ऐसा नहीं है कि एक की क्रिया को परयार्थ से दूसरे की क्रिया कही जाय । अन्य की क्रिया को अन्म की कहना यह यह उहचार मात्र है । क्या समीक्षक यह स्वीकार करता है कि यह उपचार कथन है । कथन ३ (स. पृ २१२) का खलासा :- . त. च. पृ. ८६ में हमने जो कुछ लिखा है, सव आगम के आधार पर ही लिखा है । यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि शरीर जीवित नहीं होता, इसलिये इस समाधान में जीवित शरीर की क्रिया का अर्थ शरीर की क्रिया ही होगा। जड़ शरीर को जीवितरूप समीक्षक ही मान रहा है । इस समीक्षा में भी वह अपने मत के समर्थन में विविध प्रकार के भ्रामक वचनों का प्रयोग कर रहा है.। समीक्षक ने जो धर्म-अधर्म को भाववती शति का परिणमन जगह-जगह लिखा है, सो धर्म-अधर्म के होने में तो भाववती शक्ति का परिणमन निमित्त मात्र है। वस्तुतः धर्म अधर्मरूप परिणमन .तो श्रद्धा आदि गुणों के स्वभाव और विभावरूप परिणमन हैं - ऐसा सर्वत्र समझना चाहिये। स पृ. २१३ में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "यद्यपि जीव के सहयोग.से होने वाली शरीर की क्रिया प्रात्मा के धर्म अधर्म के अभिव्यक्त होने में निमित्तभूत और शरीर के सहयोग से होने वाली जीव की क्रिया के अभिव्यक्त होने मे निमित्त होती है।" सो इस सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि शरीर का कोई भी परिणमन परिस्पन्दरूप हो या परिणामरूप हो, उन दोनों को ही जीव जिस भाव से लक्ष्य में लेता है अर्थात् यदि जीव उसको विषय रूप से लक्ष्य में लेता है तो वे अधर्म के होने में निमित्त होते हैं और यदि ज्ञान भाव से पुद्गल का परिणमन जानकर उनको लक्ष्य में लेता है तो वे धर्म के होने में निमित्त होते हैं - ऐसा समझना चाहिये । आगे के पैरा में उसके द्वारा कहे गये कथन का भी यही समाधान है। "एक बात और है" लिखकर हमारे कथन के विपय में भी जो उसने शब्द योजना लिखी हैं, वह हमारी मान्यता नहीं है । हम अपने अभिप्राय को आगम के अनुसार यहां अभी ही लिख पाये हैं। स. पृ. २१४ पर उसने हमारे अभिप्राय के विषय में जो स्पष्टीकरण किया है. वह भी ठीक नहीं है । हमने स. पृ. ८६ पर भी 'आत्मा के शुभ अशुभ भावों के निमित्त से ही मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को शुभ और अशुभ कहा है, क्योंकि मन, वचन, काय की जितनी भी प्रवृत्ति होती है वह स्वयं न शुभ है और न अशुभ है । उसे शुभ और अशुभ जीवभावों के आधार से ही शुभ-अशुभ कहा, जाता है । जैसा कि त. सू. अ. ६ सू ३ की सर्वार्थसिद्धि टीका से ज्ञात होता है । यथा
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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