SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जाना बड़ा विचित्र लगता है । कदाचित् इसमें से प्रथम विकल्प को जीवित शरीर की क्रिया वह पक्ष कैसे कह रहा है - यह समझ के बाहर की बात है । हां यदि दूसरे विकल्प को मानने वाले व्यक्ति को समीक्षक अप्रतिबुद्ध स्वीकार करता है तो उसका ऐसा मानना ठीक ही है, फिर भी हमें इस बात का आश्चर्य होता है कि ऐसा जानते हुए भी उसने इस मूल शंका को उपस्थित ही कैसे किया ? यदि हमसे पूछा जाय तो हम तो इतना ही कहेगे कि धर्म या अधर्म का कर्त्ता तो स्वयं जीव ही है, शरीर की क्रिया उसमें निमित्त मात्र है। यदि किसी भी प्रकार के निमित्त में धर्म या अधर्म के कर्तृत्व का आरोप करके ऐसा मान भी लिया जाय तो भी शरीर को जीवित कहना केवल अपने घर की मान्यता ही कही जायेगी। (३) इस क्रमांक के अन्तर्गत समीक्षक ने जो कुछ लिखा है वह केवल उसने शरीर को जो जीवित विशेषण लगाया है, उसकी पुष्टि मात्र है, अन्य कुछ नहीं । पंचमहावत आदि का पालन जीव ही करता है, शरीर नहीं। शरीर तो निमित्तमात्र है। असद्भूत व्यवहार से शरीर के आधार से जीव के रहने पर भी शरीर तो जड़ ही बना रहता है, इसलिए धर्म अधर्म जीव का ही परिणाम है, वही उसका परमार्थ से कर्ता है, शरीर नहीं । उसको यदि निमित्तपने की अपेक्षा कथन की.बात करना भी थी तो उसे शरीर के निमित्त से जीव धर्म अधर्म करता है या नहीं, इस रूप में शंका रखना चाहिये थी। उस पक्ष में इस चर्चा के प्रतिनिधि तब चोटी के विद्वान थे । उनसे यह प्रमाद कसे हो गया, इसका हमें ही क्या, सबको आश्चर्य होता है। यह ठीक है कि जीव का मतिज्ञान रूप उपयोग इन्द्रियों के निमित्त से होता है, किन्तु इतने मात्र से वाह्य उपकरणों को जीवित तो नहीं कहा जा सकता। वह पक्ष "सहारे" की धुन यदि नहीं छोड़ता है तो वही बताये कि चारित्र मोह कर्म के उदय से जव राग भाव होता है तो चारित्र मोह का उदय किसके सहारे से होता है। उपशम, क्षय, क्षयोपशम के विषय में भी यही पृच्छा की जा सकती है। यदि वह कहे कि उक्त कर्म का उदय तो स्वयं होता है तो उसी समय वह पक्ष राग भाव को स्वयं होता हुआ क्यों नहीं मान लेता, क्योंकि उक्त कर्म का उदय तो निमित्त मात्र है। यदि कहो कि उक्त कर्म के उदय में काल निमित्त है तो उक्त राग की उत्पत्ति में काल को निमित्त क्यों नहीं मान लेता? तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु स्वयं ही उत्पाद-व्ययरूप परिणमती है। कोई किसी को परिणमाता नहीं। इस निमित्त से यह कार्य हुया यह कथन उपचार मात्र है । केवल प्रयोजन विशेप से ऐसा उपचार किया जाता है । (४) हमारा पक्ष शरीर आदि पर द्रव्यों और उनकी पर्यायों के असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा निमित्त से तो धर्म या अधर्म मानता है, जीवित शरीर से नहीं, क्योंकि शरीर जीवित होता ही नहीं तो उससे धर्म या अधर्म होता है या नहीं - ऐसा लिखना मात्र प्रमाद को ही सूचित करता है। चूंकि उस पक्ष द्वारा एक वार प्रमाद हो गया तो उसका बार-बार पोषण तो नहीं करना चाहिये, इसी में मोक्ष मार्ग की प्रतिष्ठा है। .
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy