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________________ १५१ उसकी यही मान्यता मालूम पड़ती है कि वह पक्ष जीव के शरीर की क्रिया को ही धर्म या अधर्म भी मानता है । उसके इसी आशय को समझकर हमने उक्त समाधान किया है, विशेष क्या सूचित करें । अन्य कथन का समाधान :- जैसे कर्म का उदय उपशम आदि को जीव के धर्म अधर्म में अद्भूत व्यवहारनय से निमित्त कहा जाता है वैसे ही जीव के शरीर को भी नोकर्म होने से उसी नय से धर्म अधर्म में निमित्त कहा जाता है । पूरा कर्म शास्त्र और चरणानुयोग शास्त्र इसका साक्षी है । इतने सीधे कथन को सीधे शब्दों में न स्वीकार कर पण्डिताई लगाना कोई प्रयोजन नहीं रखता यहाँ इतना और समझना चाहिये कि हमने यह कथन उपचारनय का आशय लेकर ही स्वीकार किया है, इसलिए इस विषय में समीक्षक का अन्य जितना लिखना है, उसे अपने मत को पुनः पुनः दुहराते रहने के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता । मूल शंका २ के दूसरे दौर की समीक्षा का समाधान (१) प्राणी में यह व्यवहार होता है कि "यह जीवित है", शरीर में नहीं, इसलिए जीवित पद जीव का विशेषरण तो वन जाता है परमार्थ से शरीर का नहीं। "जीवित शरीर" ऐसा हमने श्राज तक सुना नहीं । समीक्षक ही उसकी पुष्टि में लगा हुआ है । हां यह अवश्य कहा जाता है कि "अभी यह भाई मरा नहीं, जीता है ।" और जव जीव निकल जाता है तब शरीर को मुर्दा कहा जाता है या मरे हुए का शरीर - यह कहा जाता है । । (२) शरीर में स्थित प्राणी को निमित्त कर यह कहा जाता है कि यह दांतों से काटता है, हाथों से मारता है, पूजा करता है, मुनि को आहार देता है, यह प्रसद्भूत व्यवहार होता अवश्य है, पर को काटता है, कौन मारता है, कौन पूजा करता है, कौन मुनि आहार को देता है, ऐसा पूछा जाय तो कहा जाता है कि इस आदमी ने मारा, काटा, पूजा की, मुनि को आहार दिया, आदि । इस प्रकार हम देखते हैं कि इस व्यवहार में शरीर गौरण हो जाता है । असद्भूत व्यवहारनय से आदमी कर्ता वन जाता है। हम जानते हैं कि काटना यादि क्रिया शरीर से हुई है, पर वह जीवित शरीर से नहीं, जीते हुए आदमी के शरीर से हुई । शंकाकार के विविध कथनों का समाधान : (१). यहाँ भाववती शक्ति में शंकाकार ने श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र गुणों को ग्रहण किया हो तो वात दूसरी है पर भाववती शक्ति और क्रियावती शक्ति स्वतंत्र है, इसीलिये "भाववती शक्ति का विभावरूप परिणमन मिथ्यात्वादि हैं, और स्वभावरूप परिणमन सम्यक्त्वादि हैं" यह लिखना इसलिये आगम विरूद्ध है क्योंकि वह सामान्य कारण है । वस्तुतः सम्यग्दर्शन आदि रूप श्रद्धादि गुणों का परिणमन है । बाकी शंकाकार पक्ष का लिखना विकथारूप कथन है । (२) शरीर तो जड़ है उसको नयविवक्षा को गौरण कर जीवित कहना हास्यास्पद जान पड़ता है । ऐसी अवस्था में यह कहना कि एक तो "जीव के सहयोग से होने वाली जीव की क्रिया दूसरी शरीर के सहयोग से होनेवाली जीव की क्रिया" इन दोनों ही कथनों का समीक्षक द्वारा लिखा
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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