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________________ १४६ है । प्रमेयरत्नमाला के उद्धरण (३-६३) का भी यही अर्थ है, क्योंकि उपादान के अनुसार होने वाले कार्य के साथ प्रायोगिक या विस्रसा किसी भी प्रकार के निमित्तों की समव्याप्ति है । अतः समीक्षक ने जो प्रेरक निमित्त मानकर उसका उदासीन निमित्त से भिन्न लक्षण करने की चेष्टा की है वह यथार्थ नहीं है। समीक्षक ने जो प्रेरक निमित्तों के विषय में रेल के इंजन व डिब्बों का उदाहरण उपस्थित किया है, सो उस उदाहरण से यही निश्चित होता है कि समय भेद के विना, दोनों में एक ही साथ गति उत्पन्न होती है या दोनों ही एक साथ ही रुक जाते हैं। यह विवक्षा की बात है कि हम इंजन को प्रेरक कारण मानकर यह लिखें या कहें कि इंजन के चलने पर डिब्बों में गति उत्पन्न होती है । वस्तुतः यहाँ प्रायोगिक कारण ड्राइवर है। उसके विकल्प और योगरूप क्रिया के काल में ही इंजन व डिब्बों दोनों में गति उत्पन्न होती हुई देखी जाती है। इंजन से जुड़े हुए डिब्बे उस समय इंजन के अंग हैं इसलिये ये दो नहीं एक ही हैं। अतः प्रकृत में रेलगाड़ी समर्थ उपादान है, उसमें गति का विकल्प और योग क्रिया करता है उसी समय रेलगाड़ी भी चलने लगती है। इसी को उपादान की मुख्यता से यह भी कहा जा सकता है कि जिस समय रेलगाड़ी चलती है उसी समय ड्राइवर उसमें प्रायोगिक निमित्त होता है। इन दोनों की क्रिया में कालप्रत्यासत्ति है, इसलिये उपादान या निमित्त किसी की भी मुख्यता से कथन किया जा सकता है, तात्पर्य एक ही है। (८) शंका:-प्रेरक कारण- अनुकूल निमित्तों का सहयोग मिलने पर उपादान की विवक्षित कार्यरूप परिणति होना और जव तक अनुकूल निमित्तों का सहयोग प्राप्त न हो तव तक उसकी (उपादान की) विवक्षित कार्यरूप परिणति न हो सकना - यह निमित्तों के साथ कार्य की अन्वय-व्यतिरेक व्याप्तियां हैं । स. पृ १३ । समाधान :- आगम में कार्य-कारणभाव के मध्य कालप्रत्यासत्ति स्वीकार की गई है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि जिस काल में उपादान है उससे होने वाले कार्य के समय ही निमित्त है । इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि जिस समय जिस कार्य का निमित्त है उसी समय वह अपने उपादान का कार्य है । इसलिये यह पागम से कहाँ सिद्ध होता है कि उपादान के रहते हुए भी जब तक उसके अनुकूल (प्रेरक) निमित्त नहीं मिलते तब तक उससे विवक्षित कार्य नहीं होता। ऐसा मालूम पड़ता है कि यहाँ समीक्षक ने आगमोक्त निश्चित उपादान को स्वीकार न करके यह लिखा है, किन्तु उसका यह कहना तभी संगत माना जा सकता था जव मागम में प्रत्येक कार्य के प्रति समर्थ उपादान की स्वतन्त्र व्यवस्था न की गई होती। समीक्षक को यह समझना चाहिये कि प्रत्येक कार्य को उत्पन्न करनेवाला समर्थ उपादान ही कार्यकारी माना गया है, केवल द्रव्याथिकनय का विषयभूत उपादान नहीं । इसलिये चाहे प्रेरक (प्रायोगिक) निमित्त हो या उदासीन (विस्रसा) निमित्त होः जब समर्थ उपादान कार्य के सन्मुख हो तभी दोनों की उपयोगिता मानी गई है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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