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________________ १४५ . . . (४).शंका :- पारोप है कि व्यवहारनय के विपय में तो विवाद नहीं है, विवाद केवल कार्य में निमित्त की अकिंचित्करता के विषय में है। उत्तरपक्ष कार्य में उसे सर्वथा अकिंचित्कर मानता है और हम भूतार्थ मानते हैं । स. पृ. ५६ । समाधान :-जो कर्म का उदयादिरूप निमित्त हो या अन्य कोई निमित्त हो, वह कार्य में अपने गुण धर्म को प्रदान नहीं करता, इसलिये इस अपेक्षा से वह अकिंचित्कर है । किन्तु विवक्षित द्रव्य अपने परिणामरूप अपना कार्य करता है वैसे ही उसका निमित्त द्रव्य, या वाह्य निमित्त द्रव्य क्रम से उदयादिरूप और अपने परिणामरूप अपना कार्य करता है। इन दोनों के एक काल में होने का नियम है, इसलिये प्रयोजनवश उनमें निमित्त व्यवहार कर लिया जाता है। (५) शंका :-(समयसार गाथा ८१) ऐसा लगता है कि उत्तरपक्ष ने “कर्म गुण" और "जीव गुण" इन दोनों पदों को सप्तमी तत्पुरुष के रूप में समझकर गाथा का अर्थ किया है जब कि उन पदों की षष्ठी तत्पुरुष के रूप में समस्त पद मानकर गाथा का अर्थ करना चाहिये था ? स० पृष्ठ ६ । . . . समाधान :-इस गाथा में "कम्मगुणे" और "जीवगुणे" पद हमने सप्तमी विभक्ति में समझकर अर्थ नहीं किया है, वह सप्तमी विभक्तिरूप है भी नहीं। वे दोनों पद द्वितीया विभक्ति के बहुवचन हैं । हमने इसी को ध्यान में रखकर कोई भूल नहीं की है। '. (६)शंका :-पूर्वपक्ष (प्रेरक और उदासीन) दोनों निमित्तों को मानता है ? स. पृ. १३ । समाधान:-आगम में निमित्त दो प्रकार के स्वीकार किये गये हैं - विलसा और प्रायोगिक । द्वीन्द्रियादि जीव जिस कार्य में बुद्धिपूर्वक निमित्त होते हैं, उनकी यह निमित्तता प्रयोग-निमित्तक (प्रायोगिक) जाननी चाहिये। शेष अबुद्धिपूर्वक जितनी निमित्तता है वह सब विस्रसा कहलाती है। इसलिये आगम में उदासीन और प्रेरक निमित्त जिन्हें कहा गया है, वे यदि अवुद्धिपूर्वक निमित्त हुए हैं तो वे दोनों विस्रसा निमित्तों में परिणमित हो जावेंगे तथा बुद्धिपूर्वक निमित्त प्रायोगिक कहलावेंगे -ऐसा यहाँ समझना चाहिये । (७) शंका:-प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती हैं ? स. पृ. १३ ॥ समाधान :-पागम में कार्यकाल में कालप्रत्यासत्तिवश वाह्य द्रव्य में निमित्तता स्वीकार की गई है, इसलिये विवक्षित कार्य के साथ ही उसमें होने वाले किसी भी प्रकार के निमित्तों की अन्वय व्यतिरेक व्याप्तियां बनती हैं। जैसे - जिस समय आत्मा क्रोध परिणामरूप परिणमता है उसी समय क्रोध कपाय कर्म का उदय रहता है और वाह्य अनुकूलता भी उसी समय वनती है । यह स्वीकार करना ही ठीक है। असद्भूत व्यवहार से इसे इसप्रकार भी कहा जा सकता है कि जिस समय क्रोध कषाय कर्म का उदय है उसी समय क्रोधरूप परिणाम होता है। इन दोनों में समव्याप्ति
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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