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________________ आत्मा मुक्त नहीं हो सकता। यह आत्मा जव अज्ञान भाव से पर की संगति करता है तो नियम से वंधता है - ऐसा उसका आशय है । परसंग का अर्थ ही यह है - 'अनात्मीय भावनां प्रात्मभावः संयोगः।' वास्तव में संयोग का अर्थ अनात्यमीय भावों को आत्मरूप मानना।" .. यह आत्मा स्वयं ही परिणाम स्वभाव की योग्यतावाला तो है ही और जब ऐसी योग्यता वाला है तो स्वयं ही वह परिणमता भी है- ऐसा वस्तु स्वभाव है। उसमें अन्य द्रव्य निमित्त तो होता है, परन्तु वह उस समय स्वयं अपने परिणाम को ही करता है, उसके उस परिणाम में जैसे अन्य द्रव्य परमार्थ से सहायता नहीं करता वैसे ही आत्मा के परिणाम में भी अन्य द्रव्य परमार्थ से कोई सहायता नहीं करता । अन्यथा इस पराश्रयपने का कहीं अन्त न होने से अनवस्थादोष का प्रसंग आ उपस्थित होता है । स. पृ. १७८ । समीक्षक सर्वत्र आगम की दुहाई देकर यह सिद्ध करने का तो प्रयत्न करता है कि निमित्तभूत वस्तु जीव के परिणमन में परमार्थ से तो सहायक होती है, परन्तु अभी तक उसने अपने इस मत के समर्थन में एक भी आगम वाक्य उपस्थित नहीं किया है। .: समीक्षक समयसार गा. ११६ के ४ चरणों का जो अर्थ करता है वह ठीक नहीं है। यदि उसे उनका ठीक अर्थ करना है तो वह इस प्रकार होगा ... "यदि पुद्गल द्रव्य को जीव में स्वयं (अर्थात् पर निरपेक्ष ही) अपने आप ही बद्ध न माना जाय और उसका परिणमन भी स्वयं (अर्थात् निमित्त के बिना ) अपने आप ही न माना जाय तो वह अपरिणामी हो जायगा । (हमारे इस कथन की पुष्टि में देखो समयसार गाथा १३७-१३८) ' समीक्षक ने जो समयसार गाथा ६४ उदधृत कर अपने मत का समर्थन करना चाहा है सो उससे उसके मत का खण्डन'ही होता है, क्योंकि उससे यही सिद्ध होता है कि "जिनमें जो स्वभावभूत शक्ति होती है वह स्वयं ही उस भावरूप परिणमता है । कोई अन्य उसके परिणमन में सहायता करता हो- ऐसा उसका आशय फलित नहीं होता । स. गाथा ११६ में "स्वयं" पद का अर्थ कर्त्ता के अर्थ में "अपने आप ही" है "अपने रूप" नहीं। जहां जो प्रकरण हो उसी के अनुसार उसका अर्थ किया जाता है । यहां कर्ता प्रकरण है, इसलिये स्वयं पद का अर्थ "अपने आप" ही होगा" यहां अन्य कारक विवक्षित नहीं । व्यर्थ ही कल्पनाशील व्यवहार को इतना प्रवल बनाने की आवश्यकता नहीं, जिससे वस्तुस्वरूप अर्थात् निश्चय पक्ष की हानि का प्रसंग उपस्थित हो जाय । श्री पंडित जयचंदजी छावड़ा ने भी इस पद का हमारे लिखे अनुसार ही अर्थ किया है । इन गाथानों की संस्कृत टीका में भी यही अर्थ किया गया है। श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने भी इस प्रसंग से "स्वयं" पद का यही अर्थ किया है जो हमने किया है । (देखो उनके द्वारा किये गये तत्वार्थवृत्ति के हिन्दी अनुवाद को ।) कथन नं ८ का समाधान:-"सम" पद का प्रकृत में क्या अर्थ होता है यह हम कथन नं. ८७ में स्पष्ट कर आये हैं, इसलिए पुनः उसकी चर्चा करना प्रयोजनीय प्रतीत नहीं होती। इस
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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