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________________ १२४ K मिथ्यात्व कर्म का उदय मोक्ष का साधन है । सो यदि ऐसा माना जाय तो जितने द्रव्यलिंगी मुनि हों उन सबको उत्तरकाल में भावलिंग की प्राप्ति नियम से हो जानी चाहिये । यदि कहा जाय ऐसा कोई नियम नहीं, तो हम कहेंगे कि ऐसी अवस्था में पूर्व में धारण किये गये द्रव्यलिंग को भावलिंग का साधन कहना या मानना उपचरित ही तो ठहरा। आगे अमीक्षक ने जो यह लिखा है कि "मोक्ष प्राप्त करने की उत्कट भावना से युक्त भव्य जीव सर्वप्रथम उपर्युक्त प्रकार के द्रव्यलिंग को धारण करता है; और ऐसा विचार कर धारण करता है कि - " द्रव्यलिंग को धारण करने पर ही भावलिंग की प्राप्ति संभव है, उसके अभाव में नहीं" तो उसका ऐसा लिखना एक नये भ्रम की सृष्टि करना है, क्योंकि जो भव्य जीव अपने वैराग्यपूर्ण भावना के साथ गुरू के पास जाता है वह यह मानकर नहीं जाता है कि मैं मिथ्यादृष्टि हूं और द्रव्यलिंग को धारण करूंगा तो ही सम्यक्त्व के साथ ही उत्तरकाल में मुझे भावलिंग की प्राप्ति होगी। वह तो सोधा गुरू के पास जाता है और गुरू के समक्ष मुनिपद की दीक्षा से अपने को अलंकृत कर लेता है और दीक्षा लेने के बाद वह मुनि हो जाता है । ऐसा मुनि द्रव्यलिंगी है कि भावलिंगी, ऐसी कल्पना उसके मन में उत्पन्न ही नहीं होती । वह तो जैसी मुनि का चर्चा चरणानुयोग में लिखी है उसके अनुसार प्रवृत्ति करने लगता है । रही कार्यकारण भाव की बात सो इस अपेक्षा जिस समय कार्य है उसी समय उसका निमित्त है । कार्यकारण भाव की यह व्यवस्था अनादि अबाधित है। पूर्व में कारण होता है और तदनन्तर कभी भी कार्य होता है यह मान्यता वौद्धों की हो सकती है, जैनों की नहीं । लौकिक दृष्टि से ऐसा कहना अन्य बात है । कथन नं. ७७ का समाधान :- हमने समीक्षक के कथन पर सावधानी से विचार किया है, क्योंकि भावलिंग का साधन कहो या निमित्त, द्रव्यलिंग भावलिंग का साधन तव ही कहा जाता है जब यह जाव अपने आत्मपुरुषार्थ से भावलिंग को प्राप्त करता है । निमित्त यदि समर्थ उपादान का कार्यं करे तो उसे कार्यकारी कहना युक्तियुक्त प्रतीत होवे । परन्तु वह मात्र कार्य का सूचक होता है, कर्त्ता नहीं । प्रायोगिक निमित्त में कर्त्तापने का प्रसद्भूत व्यवहार करना अन्य बात है । कथन नं. ७८ का समाधान :- हमारे वक्तव्य को ध्यान में रखकर समीक्षक ने जो यह लिखा है कि-''वायु चलती है तो वृक्ष की डालियाँ हिलती हैं, इसमें वायु का चलना वायु में हो रहा है और वृक्ष की डालियों का हिलना डालियों में हो रहा है, लेकिन यदि वायु न चले तो डालियाँ नहीं हिल सकतीं। ऐसा ज्ञान यदि लोक को होता है तो क्या उत्तरपक्ष उसे असंगत मान लेना चाहता है । यदि ऐसा है तो भवन निर्माण करते समय उस भवन में वायु के प्रवेश के लिए वह बुद्धिपूर्वक खिड़कियों को रखने की चेष्टा क्यों करता है" आदि । कार्यकारण भाव के सम्बंध में यह समीक्षक का वक्तव्य है जो मात्र कार्यकारण भाव के दुरुपयोग को ही सूचित करता है । प्रत्येक व्यक्ति संभावना में कुछ भी विचार करता रहता है और कुछ भी कहता रहता है, पर उसे सत्य रूप में कोई भी स्वीकार नहीं करता । समीक्षक का यह कहना कि "वायु न चले तो डालियां न हिलें" कल्पना मात्र है, किसी को भी ऐसा विकल्प होता है यह दूसरी बात है, परन्तु वह रहती है संभावना ही । उसी को न तो किसी ने यथार्थ ही माना है और न
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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