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________________ कथन नं. ५५ का समाधान :-समीक्षक ने निष्कर्परूप में जो यह लिखा है कि "कपडे की अपनी कार्यकारी अंतरंग योग्यता व प्रायोगिक ढंग से प्राप्त दरजी के व्यापार आदि वाह्य सामग्री के आधार पर निष्पन्न हुई कोट पर्याय, उस वाह्य सामग्री की क्षण-क्षण में होती हुई अन्य रूपता के आधार पर अन्य-अन्न रूप ही होती है ।" सो इस कथन में समीक्षक संशोधन करके आगे कहे अनुसार लिखे तो उक्त कथन भागमानुसार हो जावेगा। कपड़ा जब प्रत्येक समय में अपने समर्थ उपादान के अनुसार कर्ता होकर अपनी प्रत्येक समय में होनेवाली कोट पर्याय को निप्पन्न करता है. तब दर्जी उसके होने में स्वयं प्रायोगिक निमित्त हो जाता है, क्योंकि इस कथन में कपड़ेरूप कर्ता की स्वतंत्रता के साथ दर्जीरूप निमित्त की स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनी रहती है और इस प्रकार इस कथन में व्यवहारनिश्चय कथन की पागमानुसार संगति वैठ जाती है। इसके सिवाय समीक्षक के उक्त कथन में ऐसी कोई और बात नहीं है, जिसका हम यहां खुलासा करें। . कथन नं. ५६ का समाधान :-समीक्षक जव व्यवहारनय के कथन को अभूतार्थ कहता है तो उसे परद्रव्य के कार्य में निमित्त की सहायता को अभूतार्थ ही मान लेना चाहिये । उस पक्ष का वह कौन सा ढंग है, जिसके अनुसार व्यवहारनय के कथन को वह भूतार्थ सिद्ध करने का प्रयत्न करता रहता है। यह तो आगम की चर्चा है, इसमें ऐसा ढंग मान्य नहीं हो सकता, जो स्वरूप से.सत् न हो या उपचार सत् न हो। कथन नं ५७ का समाधान :- समीक्षक ने इस कथन में हमारे जिस वक्तव्य का उल्लेख किया है, वह यथार्थ है। हमने वह वक्तव्य निमित्त को अकिंचित्कर सिद्ध करने के लिये नहीं लिखा है, क्योंकि जितने भी वाह्य निमित्त हैं, वे परके कार्य करने में स्वरूप से ही असमर्थ होते हैं। उनको परके कार्य करने में अकिंचित्कर सिद्ध करने का हमारा कोई प्रयोजन भी नहीं था। हमने तो केवल उस वक्तव्य में निश्चयनय की व्यवस्था को ही स्पष्ट किया है। समर्थ उपादान स्वय कर्ता होकर निरपेक्ष होकर ही अपना कार्य करता है और जिसे हम बाह्य निमित्त कहते हैं, वह भी स्वयं कर्तारूप से परनिरपेक्ष होकर अपना कार्य करता है। इसप्रकार स्वतंत्र होकर दोनों ही अपना-अपना कार्य करते हैं । कालप्रत्यासत्तिवश यह तो तत्काल योग की बात है कि एक के कार्य में दूसरे को वाह्य निमित्त कहा जाता है। इसलिये परको अपने से भिन्न परके कार्य में किसी भी ढंग से कार्यकारी अर्थात् भूतार्थ रूप से सहायक मानना ही मिथ्यात्व है। असद्भूत व्यवहारनय से सहायक कहने में कोई आपत्ति नहीं। कथन नं. ५८ का समाधान :-इस कथन में समीक्षक ने अपने वक्तव्य द्वारा निश्चय कथन को जो पराश्रित बनाने का प्रयत्न किया है, यही उसका आगम विरुद्ध कथन है, क्योकि चाहे प्रायोगिक वाह्य निमित्त ही क्यों न हो, निश्चय को उसके आश्रित मान लेने से निश्चय, निश्चय ही नहीं रह जाता, वह व्यवहार हो जाता है और जो व्यवहार से वाह्य निमित्त है, वह निश्चय का स्थान ग्रहण कर लेता है। उसने आगमविरुद्ध अपनी मान्यता का समर्थन करते हुए आगमविरुद्ध इस कथन को जो बल दिया है, वह युक्तियुक्त नहीं है, पागमविरुद्ध तो है ही।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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