SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स. पृ. १३४ में समीक्षक ने प्रमेयकमलमार्तण्ड का नाम लेकर जिस अपनी बात का समर्थन करने का प्रयत्न किया है, सो हम उससे निवेदन करेंगे कि वह अपनी मान्यता को अपने तक ही सीमित रहने दे, पागम पर लादने का प्रयत्न न करे; क्योंकि वह अपनी मान्यता को प्रमेयकमलमार्तण्ड ना नाम लेकर यदि आगमपर लादेगा तो आगे दिए जानेवाले उद्धरण से जो आपत्ति उपस्थित होती है, उसका वह निवारण नहीं कर सकेगा । यथा - "नहि द्रव्यादिसिद्धिक्षणैः सहयोगिकेवलिचरमसमयवतिनो रत्नत्रयस्य कार्यकारणभावे विचारयितुमुत्क्रांत: येन तत्र तस्यासामर्थ्यः प्रसज्यते । कि तहि ? प्रथमसिद्धक्षणेन सह तत्र च तत्समर्थमेव इति प्रसच्चोद्यममेतत् । कथमन्यथाग्निःप्रथमधुमक्षरणमुपजनयन्नपि तत्र समर्थः स्यात् ? धूमक्षराजनितद्वितीयादिधमक्षरणोत्पादे तस्यासमर्थत्वेन प्रथमधूमक्षणोत्पादनेप्यसामर्थ्यप्रसच्यः । तथा च न किंचित्कस्याचित्सामर्थ्य कारणम्, न च असमर्थत्कारणादुत्पत्तिरिती क्वेयं वराकी तिष्ठत्कार्यकारणता । (श्लोक वा. ७०-७१) अर्थ :-सिद्धों के दूमरे आदि सिद्धक्षणों के साथ अन्तिम समयति अयोगकेवली के रत्नत्रय के कार्यकारणभाव का विचार करने के लिए प्रस्तुत नहीं है, जिससे वहां उसकी (समर्थ-उपादान की) असामर्थ्य की आपत्ति प्राप्त हो। शंका:-तो क्या है ? समाधान:-प्रथम सिद्धक्षण के साथ यहां पर कार्यकारणभाव विवक्षित है और वहां पर समर्थ उपादान प्रथम सिद्धक्षण को उत्पन्न करने में समर्थ ही है, इसलिए शंकाकार ने जो पहले कहा है, वह समीचीन नहीं हैं, अन्यथा अग्नि प्रथम धूमक्षण को उत्पन्न करती हुई वहां समर्थ कैसे हो सकती है ? यदि प्रथमादि धूमक्षण से द्वितीयादि धूमक्षणों के उत्पन्न होने पर उनको उत्पन्न करने में प्रथम घूमक्षणादि से असमर्थ होने के अग्नि के द्वारा भी प्रथम धूमक्षण के उत्पन्न करने में असमर्थ होने का प्रसंग प्रप्त होता है। . __ आगे समीक्षक ने स. पृ. १३५ (४) में जो वाह्य निमित्त के प्रेरक और उदासीन ये दो भेद किए हैं, इनके सम्बन्ध में हम पहले ही इसी कथन ४७ में स्पष्टीकरण कर पाए हैं । वाह्यनिमित्त को प्रेरक और उदासीन कहना यह कथन मात्र है। प्रायोगिक और वस्त्रसिक कहना आगम के अनुसार है। हमारे और समीक्षक के मध्य जो उपादान और बाह्य निमित्त के विषय में भेद है, यह पूर्वोक्त कथन से ही स्पष्ट हो जाता है, उसको पुनः पुनः दोहराने से कोई लाभ नहीं । समीक्षक का समर्थ उपादान का आगमसम्मत जो लक्षण है, उसे स्वीकार करने में ही लाभ है और उसी में मागम की मर्यादा है। कथन नं. ४६ का समाधान :-इस कथन में समीक्षक ने वाह्य निमित्त को अयथार्थ कारण मानकर भी उसके सहायक होने को यथार्थ मानने का निर्देश किया है, सो वह उसकी अपनी
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy