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________________ पुवपरिणामजुत्तं, कारणभावेण वट्टदे दव्वं । उत्तरपरिणामजुदं ते फज्ज हवे रिणयमा ॥ कथन नं. ४८ का समाधान :-यहां पर स. पृ. १६३ में अनेक बातों का निर्देश करने के वाद समीक्षक ने दो वातों का मुख्य रूप से उल्लेख किया है - (१) "इस मान्यता का आशय यह है कि जव उपादान को अपनी विवक्षित कार्यरुप परिणति के अनुकूल निमित्त का योग मिलता है, तब ही उपादान की वह विवक्षित कार्यरूप परिणति होती है और न मिलने पर नहीं होती है ।" (२) यदि कहा जाये कि संसार और मोक्षरूप परिणमन जीव के ही परिणमन हैं, इसलिए वास्तविक हैं; तो भी शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से तो वे जीव के नहीं है । व्यवहारनय से ही उसके व्यवहृत होते हैं।" क्रम से इन दोनों का समाधान इसप्रकार है (१) उपादान अव्यहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य को कहते हैं और वह नियम से प्रतिसमय कार्य को जन्म देता है - ऐसा वस्तु का स्वभाव है । और उसी आधार पर वाघ निमित्त कारण भी यथायोग्य अवश्य रहता है, ऐसी कार्यकारणभाव की कालिक व्यवस्था है। इसलिए उपादान को बाह्य निमित्त मिले, तव उपादान अपना कार्य करता है, यह समीक्षक का लिखना एकान्त होने से भ्रम को उत्पन्न करने वाला होने से प्रागम के अनुसार मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि इससे निश्चयनय के कथन की उपेक्षा होती है । (२) संसार और मोक्षरूप परिणमन निश्चय पर्यायाथिकनय से जीव की पर्यायें हैं। जहां भी इन्हें व्यवहारनय से जीव की कही गई है - वहां भेदविवक्षा में सद्भूतव्यवहार ही लिखा गया है। किन्तु जहाँ शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा रहती है, वहां भेद गौण होकर अभेद मुल्य हो जाता है और इस अपेक्षा से परसापेक्ष आत्मा को ही बंघरूप और परनिरपेक्ष स्वभावरूप परिणत प्रात्मा को ही मोक्षरूप कहा जाता है। इसके लिए समयसार गाथा १४ और उसकी आत्मल्याति टीका का अवलोकन करना चाहिए। एक बात यहाँ विशेषरूप से उल्लेखनीय है कि जहाँ भी वाहवस्तु को कार्य के काल में निमित्तरूप से विवक्षित करके सहायक कहा जाता है, वहां वह उपचरित या अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से ही कहा जाता है । इसलिए निमित्त उपाद न की कार्यरूप परिणति में कार्यकारी होकर सहायक होता है, यह कहना उसीप्रकार उपचरित है जिसप्रकार कि निमित्त कथन को आगम में उपचरित स्वीकार किया गया है। वैसे देखा जाए तो सहायक और बाह्य निमित्त इन दोनों में से किसी एक के उपचरित स्वीकार कर लेने पर उसी को सहायक कहना स्वयं उपचरित हो जाता है । फिर भी समीक्षक स. पृ. १३३ पैरा २ में उसे वास्तविक सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहा है। यह विडम्बनापूर्ण स्थिति है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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