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________________ १०३ अनुकूल प्रेरक या उदासीन या दोनों प्रकार के निमित्तों का सहयोग प्राप्त होता है और तबतक वह परिणति रुकी रहती है, जबतक उसे उसका सहयोग प्राप्त नहीं होता ।" परन्तु उसका श्रागम में केवल द्रव्यशक्ति को उपादान मानने का स्पष्ट शब्दों में निषेध करके पर्याय शक्ति विशिष्ट द्रव्य शक्ति को ही उपादान स्वीकार किया गया है। इसलिये समीक्षक ने यहाँ जो कुछ भी लिखा है, वह केवल अपने मन के समर्थन में श्रागम का अपलाप करके ही लिखा है । यहाँ यह अवश्य स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उक्त वचन में जो "सहकारिकारणपेक्षयैव " पद श्राया है, वह असद्भूत व्यवहार से ही कहा गया है । परमार्थ से तो प्रत्येक द्रव्य परनिरपेक्ष होकर स्वयं अपना कार्य करता है, ऐसा वस्तुस्वभाव है । वह कार्याव्यवहित पूर्व पर्याय निमित्त इसतरह कार्योत्पत्ति में कार्याव्यवहित आगे समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "उपादान की का सहयोग मिलने पर ही होती है, उसके अभाव में नहीं । पूर्व पर्याय का बोलबाला सिद्ध न होकर निमित्त का ही बोलवाला स्पष्ट सिद्ध होता है ।" सो यहाँ पूछना यह है कि समीक्षक यह सब कथन असद्भूत व्यवहारनय से कर रहा है या निश्चयनय से । यदि वह कहे कि वह कार्य में परसापेक्षपने का कथन श्रसद्भूत व्यवहारनय से कर रहा है, तो ग्रागम के अनुसार इस कथन में हमें कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती, क्योंकि यह नय पराश्रित होता है - ऐसा श्रागमवचन है । यदि वह यह सब कथन निश्चयनय से कर रहा है, तो उसका ऐसा लिखना श्रागमवाह्य है, क्योंकि निश्चयनय स्वाधित होता है, ऐसा आगमवचन है । इसलिये परमार्थ से यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय अपने कार्य का उपादान होकर पर की अपेक्षा किये बिना स्वयं अपना कार्य करती है । परकी सहायता से कार्य होता है, यह केवल प्रसद्भूत व्यवहारनय से ही कहा जाता है । समीक्षक ने यह लिखा है कि "यतः उपादान को निमित्त का सहयोग प्रायोगिक या प्राकृतिक रूप में सतत् मिलता ही रहता है, अतः उसकी कार्योत्पत्ति सतत् होती रहती है, उसमें कोई बाघा उपस्थित नहीं होती ।" सो उसका यह लिखना इसलिये ठीक है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य पर्यायशक्ति से समन्वित होने के कारण प्रतिसमय उपादान है, अतः प्रतिसमय वह स्वयं अपनी परिणाम शक्ति के कारण कार्यरूप परिणमता है, चाहे वह कार्य अर्थ पर्यायरूप हो और चाहे व्यंजनपर्यायरूप हो । तथा कालप्रत्यासत्तिवश उक्त दोनों प्रकार के कार्यों में असद्भूत व्यवहार से यथासंभव प्रायोगिक या वैखसिक अनुकूल बाह्य निमित्तों का योग भी होता ही रहता है । (स. पृ. १३४ ) जिससमय उपादान कार्यरूप परिणमता है, उसीसमय उसका बाह्य निमित्त है। इसमें व्यवधान नहीं पड़ता, श्रतएव इसी का नाम कालप्रत्यासत्ति है । इसप्रकार समीक्षक के उक्त कथन से यही सिद्ध होता है फिर भी समीक्षक व्यवहार की सिद्धि के अभिप्राय से अन्य जो कुछ भी लिखता रहता है, इसका हमें खेद है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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