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________________ १०२ यह प्रमेयकमल मार्तण्ड के उक्त उद्धरण का अर्थ है । समीक्षक ने अपने इष्ट प्रयोजन को सिद्ध करने के अभिप्राय से एक तो " तत्परिणतिश्च" का अर्थ पूरा नहीं दिया है । दूसरे "पर्यायशक्तेस्तदैव " से लेकर शेप वाक्य के अयं के करने में भी गोलमाल कर दिया है, क्योंकि उसमें "तदैव " पद को छोड़कर अपने अभिप्रायनुसार किसी तरह अर्थ विठाने की चेष्टा की गई है, यह सभी तत्वज्ञ जानते हैं कि चाहे मोहरूप कार्य हो और चाहे संसाररूप कार्य हो, कार्यकारणभाव में निश्चयव्यवहार की युति नियम से होती है । प्रत्येक द्रव्य का प्रत्येक समय में कार्य होता है और प्रत्येक समय में उसके अनुरूप निश्चय साधन के साथ व्यवहार साधन का योग भी बनता रहता है । श्रागम में जो नियत उपादान का सुनिश्चित लक्षरण दिया गया है, वह इसी अभिप्राय से ही दिया गया है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिन दोपों की हम कल्पना नहीं कर सकते, वे दोप उपस्थित हो जाते हैं । यथा - (१) चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में रत्नत्रय की पूर्णता होने पर भी अनन्तरसमय में चार ग्रघातिया कर्मों की क्षयरूप अवस्था न होने से जीव का मोक्षमार्ग नहीं होना चाहिए । (२) भट्टाकलंकदेव ने तत्वार्थवार्तिक ० १ सूत्र २० में जो यह लिखा है कि - " मिट्टी के स्वयं भीतर से घटभवन रूप परिणाम के सन्मुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुषप्रयत्न निमित्तमात्र होते हैं, तो उनका ऐसा नियम करना नहीं बन सकता, क्योंकि समीक्षक के मतानुसार उक्त उपादान रहे, परन्तु बाह्य सामग्री न हो तो घटकार्य नहीं होना चाहिये । पर ऐसा नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक वस्तु उपादान भाव को प्राप्त होती रहती है और प्रत्येक समय में कालप्रत्यासत्तिवश उस समय के उपादान के अनुसार होनेवाले कार्य के अनुकूल द्रव्यपर्यायरूप बाह्य सामग्री का योग भी मिलता रहता है । प्रमेयकमलमार्तण्ड के उक्त वचन का भी यही ग्राशय है । उसमें यही तो कहा गया है कि उपादान से कार्य होते समय सहकारी कारण की अपेक्षा रहती है, क्योंकि पर्यायशक्ति उसी समय होती है, इसलिये सर्वदा कार्य होने का प्रसंग नहीं आता है | यहाँ जो सहकारी काररण की व्ययंता का निषेध किया गया है, सो उससे यह सहज ही सूचित हो जाता है कि उपादान की व्यर्थता स्वीकार नहीं की गई है, वैसे ही सहकारी कारण की व्यर्थता भी नहीं माननी चाहिये । जहाँ उपादान निश्चय से सार्थक है, वहीं सहकारी कारण असद्भूत व्यवहारनय से साधक हैं । समीक्षक जो सहकारी कारण की सहायता को भूतार्थ रूप से यथार्थ मानता है, उसी का आगम में निषेध किया गया है, असद्भूत व्यवहारनय से उसे सहायक कहने में बाघा नहीं श्राती, क्योंकि परमार्थ नहीं होते हुए भी ऐसा व्यवहार लोक में किया ही जाता है कि उससे यह कार्य हुआ, जब कि होता है तो स्वयं अपने उपादान से ही होता है । इसप्रकार प्रमेयकमल मार्तण्ड के उक्त वचन पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि विवक्षित उपादान में विवक्षित कार्यरूप परिणत होने की योग्यता जाती है, सर्वथा नहीं पायी जाती । हाँ यदि उक्त मात्र द्रव्यशक्ति को समीक्षक का स. पृ १३३ में यह कहना ठीक होता कि "उपादान में होने की योग्यता स्वभावनः विद्यमान रहने पर भी उसकी वह परिणति - केवल एक समय तक ही पायी उपादान कहा गया होता तो विवक्षित कार्यरूप परिणत तभी होती है, जब उसे
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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