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________________ ६५ कथन नं ४२ का समाधान :- खा त. च. पू. ६० में हमारे द्वारा समयसार कलश ६३ के आधार से लिखे गये विशेष स्पष्टीकरण को ध्यान में रखकर समीक्षक ने जो यह लिखा कि "वाह्य पदार्थ की उपचार हेतुता को वास्तविक क्यों मानता है, इसका आगम प्रमाण के श्राधार पर उसने अपने वक्तव्यों में बारवार स्पष्टीकरण किया है और इस समीक्षा में भी उसका वारवार स्पष्टीकरण किया गया है, उसकी उत्तरपक्ष जानबूझकर उपेक्षा कर रहा है।" सो उसका ऐसा लिखना इसलिए असंगत है, क्योंकि अभीतक इस विषय के समर्थन में उसने जितने भी प्रमारण दिये हैं, उनको जो भी अर्थ वह फलित करना चाहता है; वह फलित नहीं होता । प्रत्युत उन प्रमाणों से आगम के अनुसार हमारे कथन की ही पुष्टि होती है । इसका स्पष्टीकरण हम बारबार कर ये हैं । इसी सिलसिले में समीक्षक ने निमित्त कर्ता और बाह्य निमित्त मानने में क्या प्रयोजन है । यह जानने की जिज्ञासा करते हुए अपने मतानुसार उसका स्पष्टीकरण किया है । सो यद्यपि हम वाह्य निमित्त और निमित्तकर्त्ता मानने में क्या प्रयोजन है, इसे अनेक वार स्पष्ट कर ग्राये हैं; किर भी समीक्षक के चिड को दूर करने के अभिप्राय से हमारे द्वारा यहाँ पुनः स्पष्ट किया जाता है कि उपादान की कार्यपरिणति में जो उपचार हेतु को जिस प्रयोजन से स्वीकार किया गया है, वह इष्टार्थ की सिद्धि में साधक होता ही है। साथ ही बाह्य निमित्त को जो निमित्तकर्त्ता कहा जाता है, वह अज्ञानियों के व्यवहार को सूचित करने के अभिप्राय से ही कहा जाता है । कथन नं. ४३ का समाधान :- समीक्षक का कहना है कि - "निमित्त उपादान का सहायक होने रूप से कार्यकारी होता है । निमित्त का कार्य वहां पर केवल हाजिरी देना मात्र नहीं है ।" इसी प्रसंग को लेकर स. पू. १२५ में वह लिखता है कि " फलतः उत्तरपक्ष की मान्यता में वाह्य सामग्री उपादान की कार्योत्पत्ति में सर्वथा अकिंचित्कर रहती है और उसमें निमित्त-व्यवहार आकाश कुसुम की तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होता है ।" सो इस सम्बन्ध में प्रागम के अनुसार हमारा कहना यह है कि जिसे हम उपादान की कार्योत्पत्ति में निमित्त कहते हैं, वह स्वयं उपादान होकर उस समय अपना कार्य करता है । अकिंचित्कर होकर फालतू नहीं बैठा रहता है । द्रव्य का यह स्वभाव ही नहीं कि वह अपना कार्य तो करे नहीं और अन्य के कार्य में सहायता करने लगे । अन्य के कार्य में सहायता करता है, यह वस्तुतः मानना अज्ञानी का विकल्प है, जो उपचरित होने से आगम में असद्भूतार्थं ही माना गया है भूतार्थ की सिद्धि का साधक होने से उसे प्रयोजनीय श्रवश्य । कहा गया है । आगे समीक्षक लिखता है " व्यवहार ( उपचारनय) से बाह्य सामग्री उपादान के कार्य का अनुरंजन करती है, उपकार करती है और उसमें सहायक होती है ।" सो समीक्षक का यह सव मानना कल्पनाजन्य कथन मात्र है, क्योंकि यद्यपि प्रसद्भूत व्यवहार ऐसा माना या कहा अवश्य जाता है पर ग्रागम में उपादान के कार्यकाल में ही वाह्य निमित्त को स्वीकार किया गया है, इसलिये वास्तव में मात्र उससे यह सूचना तो ग्रवश्य मिलती है कि इस समय उपादान ने क्या कार्य किया,
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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