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________________ जाता है, ऐसा माना जाता है तो उसका अर्थ यह हुआ कि वह अन्य के कार्य में सहायक तो नहीं होता, मात्र कालप्रत्यासत्तिवश उसे सहायक कहा जाता है । आगे समीक्षक ने यह लिखा है कि "परन्तु इस उपचार को वह पराश्रित के आधार पर उपचार मानता है व इसके आधार से उसी निमित्त में अन्य वस्तु के कर्तृत्व का उपचार वह पालाय पद्धति के पूर्वोक्त वचन के आधार पर स्वीकार करता है" सो अपने इस वचन का उपसंहार करते हुए जो समीक्षक ने यह लिखा है कि "जहाँ उत्तरपक्ष इन दोनों ही उपचारों को कल्पनारोपित मात्र मानता है, वहां पूर्व पक्ष इन्हें कल्पनारोपित नहीं मानता, इत्यादि "सो इस संबंध में हम जो इसके पहले उत्तर दे आये हैं, वह यहां भी लागू होता है। आगे समीक्षक ने पालाप पद्धति के "मुस्याभावे सति" इत्यादि वचन को ध्यान में रखकर जो टीका की है, वह युक्त नहीं है, क्योंकि उपचार की प्रवृत्ति दोनों अर्थों में होती है। कहीं हमारे द्वारा सुझाए गए अर्थ में होती है और कहीं समीक्षक ने जो अपना आशय व्यक्त किया है, उस अर्थ में भी होती है। घी का घड़ा कहना, यह है तो मिट्टी आदि का घड़ा, मात्र घी के निमित्त से उसे घी का घड़ा कहा गया है। इसलिए मुख्य जो मिट्टी प्रादि हैं उसका घड़ा न कहकर, उसे घी के निमित्त से घी का घड़ा कहना, यहां मुख्य मिट्टी को गौण किया गया है। यदि प्रकृत में ऐसा अर्थ लिया जावे तो इसमें क्या आपत्ति है ? कोई आपत्ति नहीं है। यहां इसी परा में आगे जितनी बातें समीक्षक ने लिखी है, वे सब उक्त कथन में समाहित हो जाती है। इसलिए उन सवकी अलग-अलग चर्चा करना उपयुक्त नहीं है। कंथन नं. ४१ का समाधान :-खा. त. च पृष्ठ २१ में समीक्षक ने जो उपादान और निमित्त दोनों शब्दों के अर्थ को स्पष्ट किया था और उस पर हमने आपत्ति की थी, उसे (आपत्ति को) स्वीकार करते हुए समीक्षक ने यह तो स्वीकार कर लिया है कि उपादान कार्य का कर्ता होता है और वही उसका मुख्य कर्ता होता है। साथ ही वह यह भी लिखता है कि वाह्य निमित्त उपादान की कार्यपरिणति में सहयोग प्रदान करता है । तो यह सहयोग क्या वस्तु है, यही मुख्य विवाद का प्रश्न है । क्या वह भिन्न रहकर उपादान के कार्य में सहयोग करता है या उपादान से एकरस होकर उसके कार्य में सहयोग करता है और जब अपना कार्य करता है तब वाह्य निमित्त अपना कार्य छोड़कर उपादान के कार्य में सहयोग भी करता जाता है ? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका अर्थ स्पष्ट होने पर ही वास्तव में सहयोग का क्या स्वरूप है, इसे समझा जा सकता है। किन्तु समीक्षक इन प्रश्नों का समाधान न करते हुए भी अपनी रट लगाये जाता है, इसका हमें क्या, सभी को आश्चर्य होगा। अभीतक आगम के अभ्यास से हमने यही समझा है कि उपादान के कार्य और वाह्य निमित्त - इन दोनों में कालप्रत्यासत्तिवश बाह्य व्याप्ति पायी जाती है, इसलिए यह असद्भूत व्यवहार हो जाता है कि इसके निमित्त से यह कार्य हुआ, यह उपचरित होने से अभूतार्थ है । इस विषय को हम पहले और भी कई बार स्पष्ट कर आए हैं। (स. पृ. ११२)
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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