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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा का शक्ति अन्य की नहीं कही जा सकती । यही अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय की प्रवृत्ति में कारण है। अर्थात् यदि एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप परिणत हो जाय तब तो एक पदार्थ के गुण दूसरे पदार्थ में चले जाने से शंकर और अभाव दोष उत्पन्न हाते हैं। तया ऐसा ज्ञान और कथन भी मिथ्या नय है, जीवके क्रोधादि भाव उसके चारित्र गुण के ही पर-निमित्त से होने वाले विकार हैं। चारित्र गुण कितना ही विकार मय अवस्था में परिणत क्यों न हो जाय परन्तु वह सदा जीव का ही रहेगा। इसलिये यहां असद्भूत व्यवहार नय प्रवृत्त होता है। मारांशकिसो वस्तु के गुण का अन्य रूप परिणत नहीं होना इसी नय का हेतु है। ___ उपचरित असद्भूत व्यवहार नवउपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्याः औदयिकाश्चेद्बुद्धिजा विवक्षाः स्युः ५४६ । पंचा, अर्थ-औदायिकक्रोधादि भाव यदि बुद्धि पूर्वक हां फिर उन्हें जीवका समझना या कहना उपचरत असद्भुत व्यवहार नय है अर्थात प्रगट रूप क्रोधादि भावों को जानता है कि मैं क्रोधादि कर रहा हूं फिर भी उनको अपना निज का भाव समझना या कहना ऐसा कह ना समझना उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है । क्रोधादिक भार केवल जीवके नहीं है उन्हें जीवका कहना इनना अंश तो अमद्भून का है । क्रोधादिकाको क्रोधादिक ममझ कर केभी उन्हें जीवके बनाना इतना अंश नपचरित का है। गुणगुणी में भेद करना इतना अंश व्यवहार का है ! श्रनः वृद्धि पूर्वक कोधादि भार छटे गुण स्थान तक होने हैं इसके ऊपर नहीं होते। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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